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नैष्कर्म्यसिद्धिः
नवसङ्ख्याहृतज्ञानो दशमो
विभ्रमाद्यथा ।
न वेत्ति दशमोऽस्मीति वीक्षमाणोऽपि तान्नव ॥ ६४ ॥
द्वितीयाध्याय के प्रारम्भमें चार प्रकार के श्रोताओं का वर्णन किया गया। उनमें जिसको सम्पूर्ण अनारमाकी निवृत्ति होकरं स्वस्वरूप शुद्ध ब्रह्मका साक्षात्कार हुआ है वह तो सम्पूर्ण प्रतिबन्धकोंकी निवृत्ति होनेसे शुध हुआ ही है । इसलिए उनके विषयमें कुछ वक्तव्य श्रवशिष्ट नहीं है और जो कि वाक्य श्रवण मात्र से ही स्वस्वरूपको जान सकता है, उसको अतीन्द्रियपदार्थों के समझने की शक्ति स्वतः ही है, इसलिए उसको भी कुछ कहना श्रवशिष्ट नहीं है । ऐसे ही जिसने प्राचार्य के मुख से 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्योंका अच्छी तरह से अर्थं श्रवण करके स्वयमेव अन्वय व्यतिरेक पूर्वक यथोचित मनन करके अन्त में साक्षात्कारको प्राप्त किया है वह भी ठीक ही समझा है, इसलिए पूर्ववत् उपेक्षणीय है । परन्तु जिसको अन्वयव्यतिरेकके द्वारा पुनः पुनः ज्ञान कराकर, यथार्थ ज्ञान होने के लिए, वाक्यका श्रवण कराया जाता है, उस पुरुषको श्रन्वयव्यतिरेकके अनन्तर किस चाल से वाक्यका श्रवण कराया जाता है, यह कहते है -
जैसे [ दस आदमी किसी कामके लिए इकट्ठे होकर ग्रामसे अरण्य में गये । वहाँसे लौटने पर विचार करने लगे कि हमलोग जितने गये थे, सब प्राये कि नहीं ? तब उस समय ] गणना करने में प्रवृत्त हुआ पुरुष अपनेसे अतिरिक्त नौ आदमियों को देखता हुआ भी नवसङ्ख्यासे भ्रान्ति में पड़कर 'दसवाँ तू है ?' इस वाक्यके श्रवण के बिना अपनेको 'मैं दशम हूँ' ऐसा नहीं जानता ॥ ६४ ॥
अथ दृष्टान्तगतमर्थ दार्शन्तिकार्थे समर्पयिष्यन्नाह - अपविद्धयोऽप्येवं तत्त्वमस्यादिना विना | वेति नै कलमात्मानं नाऽन्वेष्यं चाऽत्र कारणम् ।। ६५ ।।
दृष्टान्त के प्रतिपादनसे सिद्ध अर्थको दाष्टान्तिक में समर्पित करते हुये कहते हैं— ऐसे ही संसारी पुरुष वस्तुत: शुद्ध बुद्ध ब्रह्मरूप होनेपर भी अज्ञान से अपने
" स्वरूप को भूल कर बिना 'तत्त्वमसि' इस वाक्यके श्रवरण किये 'मैं वही परब्रह्म हूँ' ऐसा
नहीं जानता । स्वयंप्रकाश आस्मा में अज्ञान कहाँ से आया, ऐसी शङ्का मत कीजिये १ क्योंकि वह अनिर्वचनीय है । इसलिए उसके कारण के अन्वेषण में मत लगिये ! ॥ ६५ ॥
नाऽन्वेष्यं
चात्रकारणमित्युक्तं तत्कस्मादिति चोदिते
प्रत्याह । अन्वेषणाऽसहिष्णुत्वात् । तत्कथमित्याह - सेयं भ्रान्तिर्निरालम्बा सर्वन्यायविरोधिनी । सहते न विचारं सा तमो यद्वद् दिवाकरम् ॥ ६६ ॥