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भाषानुवादसहिता
विक्रियाऽज्ञानशून्यत्वान्नेदं न च ममाऽऽत्मनः । उत्थितस्य सतोऽज्ञानं नाऽहमज्ञासिषं यतः ॥ ६२ ॥
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आत्मामें अज्ञानरूप उपाधिके निमित्त ग्रहंकारसाक्षिता है और अज्ञानकार्य परिणामी श्रन्तःकरण के सम्बन्धसे परिणामित्वादि होता है। इस कारण अज्ञान और उसके कार्य अन्तःकरणादि उपाधियोंसे आत्माको अहंकार और घटादिमें यथाक्रम से 'इदम् ' और 'मम' ऐसा ज्ञान होता है । इस प्रकार अन्वय दिखलाया । अव अज्ञान तत्कार्यके न होने से पूर्वोक्त ज्ञानद्वय नहीं होता, ऐसा व्यतिरेक दिखलाने के लिए कहते हैंसुषुति समय में शब्दादि श्राकारसे परिणाम होना, इस प्रकारका विकार या अज्ञान 'नहीं है, इसलिए उस समय 'इदम्' या 'मम' इस प्रकारका ज्ञान नहीं होता, क्योंकि उत्थित होनेपर मैं अब तक कुछ नहीं जानता था, ऐसी स्मृति होती है ॥ ६२ ॥
आत्मानात्मविवेकस्येय त्ताप्रदर्शनार्थमाहवाक्यप्रत्यक्षमानाभ्यामियानर्थः प्रतीयते । अनर्थकृत्तमोहानिर्वाक्यादेव
सदात्मनः || ६३ ॥
श्रात्मा और अनात्मा विवेककी अवधि दिखाने के लिए कहते हैं‘त्वम्' पदार्थ शोधक वाक्य और अन्वयव्यतिरेक से उत्पन्न श्रात्मानात्मविवेकानुभव रूप प्रत्यक्ष, इन दो प्रमाणोंसे सम्पूर्ण अनात्मासे पृथक् शुद्ध आत्माका अनुभव होता है । तब 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्योंकी कोई आवश्यकता ही नहीं है, ऐसी शङ्का मत कीजिए ? क्योंकि समस्त अनर्थके मूलभूत श्रात्मा के अज्ञानकी निवृत्ति सदा महावाक्यसे ही होती है । दूसरे प्रमाणोंसे नहीं सकती || ६३ ||
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द्वितीयाध्यायादौ श्रोतृचतुष्टयमुपन्यस्तम् । तत्र कृत्स्नानात्मनिवृत्तौ सत्यां यः प्रत्यगात्मन्यवाक्यार्थतां प्रतिपद्यते, सः क्षपिताशेषान्तरायहेतुरिति न तं प्रति वक्तव्यं किञ्चिदप्यवशिष्यते । योऽपि वाक्यश्रवणमात्रादेव प्रतिपद्यते तस्याऽप्यतीन्द्रियशक्तिमत्वान्न किञ्चिदप्यपेक्षितव्यमस्ति । यच श्राविततत्त्वमस्यादिवाक्यः स्वयमेवाऽन्वयव्यतिरेकौ कृत्वा तदवसान एव वाक्यार्थ प्रतिपद्यतेऽसावपि यथार्थं प्रतिपन्न इति पूर्ववदेवोपेक्षितव्यः । यः पुनरन्वयव्यतिरेकौ कारयित्वा - ऽपि पुनः पुनर्वाक्यं श्राव्यते यथाभूतार्थप्रतिपत्तये तस्य कृतान्वयव्यतिरेकस्य सतः कथं वाक्यं श्राव्यत इति । उच्यते