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नैष्कर्म्यसिद्धि:
एवं तच्चमसीत्यस्माद् द्वैतनुत्प्रत्यगात्मनि । सम्यग्ज्ञातत्वमर्थस्य जायेतैव प्रमा दृढा' ॥ ७० ॥
'तत्त्वमसि' इत्यादि वेदान्तवाक्यके श्रवण से होनेवाला ज्ञान यथार्थ हो है । क्योंकि वह समस्त तप्रत्ययों को बाधित करके उत्पन्न हुआ है और उसके उदय होने के श्रनन्तरं उसका बाधक ज्ञानान्तर ( दूसरा ज्ञान ) उत्पन्न होता हुआ नहीं दिखाई पड़ता । इसी बातका दृष्टान्त द्वारा प्रतिपादन करते हैं-
'मैं दशम हूँ' इस ज्ञानके उत्पन्न होनेके पूर्व, अथवा उस समय में, या उत्तरकालमें गणना करनेवाले पुरुषको नौ प्रादमियों के विषय में संशय न होनेसे 'दशम तू है' इस वाक्यसे 'मैं दशम हूँ !' इस प्रकारका ज्ञान जैसे दृढ़ हो जाता है । वैसे ही जिस पुरुषकों 'त्वम्' पदार्थका ज्ञान भली प्रकारसे हुआ है, उसको 'तत्वमसि' इत्यादि वाक्यसे, समस्त द्वैतको बाधित करनेवाला, प्रत्यगात्माका यथार्थज्ञान दृढ़ होता ही है ॥ ६६७० ॥
प्रत्यागात्मनि प्रमोपजायत इत्युक्तम् । तत्र चोद्यते । किं यथा घटादिप्रमेयविषया प्रमा कर्तादिकारकमेदाऽनपह्नवेन जायते तथैव उताsशेषकारक ग्रामोपमर्दन कर्तुः प्रत्यगात्मनीति, उच्यते-
प्रत्यक्ताऽस्य स्वतोरूपं निष्क्रियाकारकाफलम् । अद्वितीयं तदिद्धा धीः प्रत्यगात्मेव लक्ष्यते ॥ ७१ ॥
प्रत्यगात्माका यथार्थज्ञान होता है, यह बात कही गई इसपर ऐसी शङ्का होती है कि जैसे घटादि पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान कर्त्ता, करण, कर्म इत्यादि पदार्थोंके भेदको बाधित न करता हुआ उत्पन्न होता है । आत्मज्ञान भी वैसे ही उत्पन्न होता है अथवा सम्पूर्ण द्व ैतको बाधित करके उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर देते हैं ---
इस श्रात्माका जो प्रत्यक्त्व अर्थात् चैतन्य सर्वान्तर-स्वरूप है, वही निष्क्रिय, कारक और फल, अद्वितीय आत्माका वास्तविक स्वरूप है । इससे इतर जो है, वह सब विद्या आरोपित है । जत्र आत्माका वास्तव में ऐसा स्वरूप है, तब उसका जो ज्ञान है वह भी आत्मस्वरूपसे व्यास होकर वैसा ही होता है, अर्थात् आत्मज्ञान समस्त प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय, प्रमा, इत्यादि द्वत प्रपञ्चका नाश करके ही उदय होता है ॥ ७१ ॥
१ जायते वै प्रमा डढा, ऐसा पाठ भी है ।