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भाषानुवादलहिता
यस्मादेवम्-
विपश्चितोऽप्यस्वस्यामात्मभावं वितन्वते । 'दवीयः स्विन्द्रियार्थेषु क्षीयते ह्युत्तरोत्तरम् ।। ७२ ।।
जब कि ऐसा है अर्थात् चिदाभास द्वारा चैतन्यके साथ तादात्म्य होनेसे हो बुद्ध्यादिमें प्रत्यक्त्व है, स्वाभाविक नहीं । इसी कारण विद्वान् लोग भी व्यवहार कालमें उसी बुद्धि में श्रात्मवकी आन्तिमें पड़ते हैं । इसीसे बुद्धिमें चैतन्याभासानुविद्धत्व है, यह प्रतीत होता है और बुद्धिसे दूर रहनेवाले शरीरादि बाह्य पदार्थों में उत्तरोत्तर श्रात्मभ्रान्तिकी विरलता देख पड़ती है । [ इसलिए भी बुद्धिमें चैतन्याभास अनुविद्ध है, यह जाना जाता है । ]
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आह । यदि वाक्यमेव यथाभूतार्थावबोधकमथ कस्य हेतोरविद्योत्थापितस्य कर्तृत्वादेरुपदेश इत्युक्ते प्रतिविधीयतेभ्रान्तिप्रसिद्ध्याऽनूद्यार्थं तत्तत्त्वं भ्रान्तिबाधया । अयं नेत्युपदिश्येत तथैवं तत्त्वमित्यपि ॥ ७३ ॥ इसपर कोई शङ्का करता है कि यदि 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्य ही श्रात्माके यथार्थं स्वरूपको बोधन करता है, तो फिर श्रुति किस कारण से अविद्या प्रयुक्त कर्तृत्वादिधर्मो उपदेश करती है ? इसका उत्तर देते हैं
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यह क्या स्थाणु है, किंवा पुरुष है, इस प्रकारका सन्देह, अथवा यह पुरुष ही है, ऐसा विपरीत : निश्चय जिस विषयमें हुआ है, वहाँपर भ्रान्तियुक्त पुरुष - प्रसिद्धिका -अनुवाद करके 'जो यह पुरुष देख पड़ता है, वह स्थाणु है, पुरुष नहीं ।' इस प्रकार श्रारोपित पुरुषाकारको बाध करके पुरोवर्ती वस्तुके स्वरूपका जैसे उपदेश दिया जाता है। वैसे हो अविद्यासे आरोपित कर्तृत्व, भोक्तृत्वादिका अनुवाद करके, उस आरोपित रूपका ICTE करके जीवका यथार्थ स्वरूप बोधन किया जाता है ॥ ७३ ॥
इममर्थ दृष्टान्तेन बुद्धावारोपयति
स्थाणुः स्थाणुरितीवोक्तिर्न नृबुद्धिं निरस्यति । अनुवादात्तथैवोक्तिभ्रान्ति पुंसो न
इसी बातको व्यतिरेक दृष्टान्तसे बुद्धिमें श्रारूढ़ कराते हैं
जैसे आरोपित पुरुषाकारका अनुवाद न करनेसे विरोध प्रतीत न होनेके कारण
१ दवीयसेन्द्रि०, ऐसा पांठ भी है ।
२ यथैवं, ऐसा पाठ भी है ।
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बाधते ॥ ७४ ॥