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नैष्कभ्यसिद्धि 'यह स्थाणु है। 'स्थाणु है' केवल ऐसी उक्ति पुरुष बुद्धिको नहीं निवृत्त कर सकती। वैसे ही 'वह तू है। केवल इतना ही कहनेपर, यदि विरुद्धाकारका अनुवाद न किया जाय तो, संसारित्वका निराकरण भी स्पष्ट नहीं होगा ॥ ७४ ॥
यस्माच्छोत्प्रसिद्धानुवाद्येव त्वमिति पदं तस्मादुद्दिश्यमानस्थत्वात् दुःखित्वादेरविवक्षितत्वमेव । विधीयमानत्वे हि सति विरोधप्रसङ्गो न तु विधीयमानानूद्यमानयोरिति । स्वप्रधानयोहिँ पदयोर्विरोधाशङ्कासामान्यालिङ्गितत्वात्तयोर्न विपर्यये । .
अनालिङ्गितसामान्यौ न जिहासितवादिनौ । व्युत्थितौ तत्त्वमौ तस्मादन्योन्याभिसमीक्षणौ ॥७५॥ .
[ यदि कोई ऐसी शङ्का करे कि 'संसार जिसमें प्रत्यक्षसे अनुभूयमान है उस जीवकी असंसारी ब्रह्मके साथ एकता कैसे होगी ? तो उसका यह उत्तर है कि ब्रह्मरूपता विधान करनेके लिए केवल 'स्वम्' पदार्थका अनुवादमात्र कर रहे हैं, विधान नहीं करते।
.. चूँकि विधान नहीं है, केवल श्रोतृप्रसिद्धिका अनुवाद ही त्वं पदसे किया है. इस कारण उद्दिश्यमान त्वम् पदार्थ में रहनेवाला दुःखित्वादिरूप संसार विवक्षित नहीं है। यदि वह विधीयमान होता, तब विरोध प्रसङ्ग होता। विधीयमान और अनूद्यमानका तो. कोई विरोध नहीं है। यदि दोनों पद स्वप्रधान हों तब विरोधकी शङ्का होती है। क्योंकि जैसे गौ अश्व है, इत्यादि प्रयोगों में गोपद-वाच्य तथा अश्वपद-वाच्य गोत्व एवं अश्वन्व सामान्यका परित्याग न होनेसे दोनों पदोंका एकार्थबोधकस्वरूप सामान्याधिकरण विरुद्ध होता है। दोनों ही अपने-अपने सामान्य धर्मोंसे युक्त हैं । जहाँ इसका वैपरीत्य है अर्थात् एक अप्रधान ( अङ्गरूप ) और दूसरा प्रधानरूप (अङ्गी) है, वहाँ विरोध नहीं होता, इसी बातको कहते हैं
__ जिन्होंने सामान्य अर्थात् दुःखित्व, अदुःखित, परोक्षत्व, अपरोक्षत्वरूप धर्मोंका परित्याग किया है अर्थात् जिनमें ये अविवक्षित हैं, उन 'तत् त्वम्' पदार्थों का कोई विरोध नहीं है। वे दोनों पद अखण्ड अद्वितीय वाक्यार्थ में तात्पर्य होने के कारण जिहासित अर्थात् परित्याग करनेके लिए इष्ट जो परोक्षत्व, सद्वितीयत्व और परिच्छिन्नस्वादि हैं उनका बोध नहीं करते। क्योंकि वे परस्परंके अनुरोवसे अपने अपने वाच्यार्थसामान्यरूपसे व्युत्थित हैं अर्थात् परस्पर विरुद्ध अंशको परित्याग करके अविरुद्ध अंशमात्रमें व्यवस्थित हैं। अतएव कोई विरोध नहीं है ॥ ७५ ॥
अन्योन्याभिसमीक्षणात् । ऐसा पाठ भी है।