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प्रान्त सम्प्रदायों द्वारा प्रचारित धर्मोको ग्रहण करने लग गया था, तब उस अज्ञानप्रधान समयमें साक्षात् परमात्माकी ज्ञानशक्तिने ही श्रीशङ्कराचार्य रूपमें प्रकट होकर देशव्यापक अज्ञानरूप अन्धकारको दूर करके भारतके एक कोनेसे दूसरे कोने तक वैदिक धर्म-कर्मका एकछत्र साम्राज्य स्थापित किया। ___ भगवान् शंकराचार्यने प्रस्थानत्रय ( उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र एवं गीता ) पर प्रसन्न गम्भीर भाष्यकी रचना करके दृढ़तापूर्वक अवैदिक दार्शनिकोंके युक्तिजालका खण्डन करके शास्त्र तथा युक्तिके बलसे वेदानुमत, निर्विशेष अद्वैत सिद्धान्तका प्रतिपादन किया। उन्होंने प्रातिभासिक, व्यावहारिक एवं पारमार्थिक भेदसे, सत्ताभेदकी कल्पना करके समस्त दर्शनोंके सिद्धान्तोंका सामञ्जस्य करके सकलसिद्धांतोंके समन्वयका मार्ग भी खोल दिया । केवल इतना ही नहीं, अद्वैत सिद्धांतका अपरोक्षतया साक्षात्कार करके जगत्में उसके प्रचारके लिए तत्-तत् देश और कालके अनुसार . मठादिस्थापनके द्वारा जगत्में ज्ञानोपदेशका भी स्थायी प्रबन्ध किया। क्योंकि यह अद्वैतसिद्धांत ही सारे संसारके लिए परमशान्ति प्रदान करनेवाला है । अस्तु, ___ आचार्यशङ्करकी लोकोत्तर विद्वत्ता और प्रतिभापर मुग्ध होकर बड़े-बड़े विद्वान् उनके शिष्य बन गए । उनमें चार शिष्य उनके प्रधान शिष्योंमें हुए । सुरेश्वराचार्य, पद्मपादाचार्य त्रोटकाचार्य, और हस्तामलकाचार्य । __ प्रस्तुत पुस्तकके रचयिता श्रीसुरेश्वराचार्य अपने गुरुके समान ही अलौकिक पुरुष थे। इनकी रचनाओं से इनकी असाधारण विद्वत्ता तथा असामान्य प्रतिभाका पर्याप्त परिचय मिलता है । सुरेश्वराचार्यके गृहस्थाश्रमका नाम 'मण्डनमिश्र' था। मंडनमिश्र ही संन्यास ग्रहणके बाद सुरेश्वराचार्य कहलाए, इस सत्य विषयमें भ्रान्त इतिहास लिखनेवाले कुछ पाश्चात्य पण्डितों एवं उनके अनुयायी कुछ भारतीय विद्वानोंको भी 'मण्डनमिश्र भिन्न थे और सुरेश्वराचार्य भिन्न थे ऐसी प्रान्त धारणा आजकल हो गई है। वास्तवमें यह निर्मूल है। इस विषयमें हमारे माननीय, मीमांसा एवं वेदान्तशास्त्रके मार्मिक विद्वान् पंडित श्रीसुब्रह्मण्यशास्त्रीजी महोदय (प्रोफेसर . विश्वविद्यालय, काशी) ने बहुत कुछ अन्वेषण करके बहुत सामग्री प्राप्त की