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( भोक्ता - जीव, भोग्य - शब्दादि विषय और प्रेरिता - परमात्मा, ये तीनों विचार-दृष्टि से ब्रह्म ही हैं ।)
इन वचनोंके अनुसार सम्पूर्ण द्वैत जब मिथ्या ही भासता है, परमार्थमें है ही नहीं । तब जीवमें कर्तृत्व भोक्तृत्व, सुखित्व, दुःखित्व आदि भी मिथ्या ही है, अध्यस्त है, अर्थात् अज्ञानसे कल्पित है, परमार्थमें नहीं है । जीवका वास्तविक स्वरूप सर्वाधिष्ठान ब्रह्म ही है, उससे भिन्न नहीं । इस प्रकारके ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान से अर्थात् स्वाश्रयभूत परिपूर्ण परब्रह्मके साथ जीवके अभेदज्ञानसे ही सायुज्य मुक्तिरूप कैवल्य होता है । यही जीवकी कृतकृत्यता है, यही परम पुरुषार्थंकी सिद्धि है। इस आत्मज्ञानके जानने में मनुष्यमात्र ही नहीं, किन्तु इन्द्रादि देवता भी अधिकारी हैं । इसलिए इन्द्रादि देवता लोगोंने भी आत्मतत्वकी जिज्ञासा से ब्रह्मा के पास जाकर ब्रह्मचर्यपूर्वक तत्त्वज्ञानका सम्पादन किया । अतएव परम शान्ति और विश्रान्तिके अभिलाषी पुरुषको आत्मतत्त्वके ज्ञानके लिए गुरुपरम्परासे अध्यात्मशास्त्रका ( वेदान्तशास्त्रका ) अध्ययन करना नितान्त आवश्यक है । अस्तु,
इस आत्मतत्त्वका विशद विवेचन यद्यपि समस्त वेदों, • उपनिषदों में पर्याप्त है । इस कारण [ वेदोंके अनादि होनेसे ही ] यह अद्वैतवाद यद्यपि संसार में अनादि कालसे ही विद्यमान है, तथापि युगके ह्रासके अनुसार मनुष्यकी ज्ञानशक्तिका ह्रास होता देखकर अज्ञानके वशवर्ती जीवोंके कल्याण की कामनासे द्वैपायन भगवान् वेदव्यासजीने चार अध्यायोंमें उत्तर-मीमांसा - ( ब्रह्मसूत्र अर्थात् वेदान्तदर्शन ) की रचना करके उसमें समस्त वेदोंके अतिगूढ़ रहस्य आत्मतत्व के स्वरूपका स्पष्ट निरूपण कर दिया है । तथापि कालचक्रके प्रभावसे जब इस कलिकालमें सद्धर्मका, वैदिक धर्मका, प्रचार और अनुष्ठान लुप्त-सा हो गया था और आत्मतत्त्वके स्वरूपका ज्ञान भी प्राय: कुछ इने-गिने उच्चकोटिके महापुरुषोंमें ही सीमित रह गया था; तब वैदिक धर्मके प्रभावके मन्द पड़ जानेसे जन समाज प्रायः श्रुतिसम्मत विशुद्ध अद्वैत ब्रह्मवादको भूलकर अवैदिक