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कहते हैं । वास्तव में जीवका जन्म-मरण नहीं होता । क्योंकि वास्तवमें वह ईश्वर ही है । उपाधिके द्वारा भिन्नसा प्रतीत होता है ।
यथा ह्ययं ज्योतिरात्मा विवस्वान् अपो भिन्ना बहुधैकोऽनुगच्छन् । उपाधिना क्रियते भिन्नरूपो देवः क्षेत्रेष्वेवमजोऽयमात्मा ॥
( जैसे एक ही ज्योतिरूप सूर्य भिन्न-भिन्न जलों में प्रतिबिम्बित होकर अनेकरूप हो जाता है, वैसे ही प्रकाशस्वरूप एक ही परमात्मा अविद्या और स्थूल सूक्ष्म शरीरोंमें प्रतिविम्बित होकर अनेक ( जीव ) स्वरूप हो जाता है | )
एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचंन्द्रवत् ॥
(जैसे आकाशमें एकरूप से विद्यमान चन्द्रमा जलमें (प्रतिविम्बित होकर ) अनेकरूपसे दीखता है । वैसे ही एक ही परमात्मा तत्तत् शरीरों में प्रतिविम्बित होकर अनेकरूप दीखता है | )
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इससे प्रतीत होता है कि जीव परमेश्वरका प्रतिबिम्ब है । परमेश्वर एक है । अविद्या और स्थूल सूक्ष्म शरीरोंके भेदसे उसके प्रतिबिम्ब अनेक हैं । 'मम मुखं दर्पणे दृश्यते' 'आकाशस्थः सूर्यो जले भासते' इत्यादि अनुभवसे भी प्रतीत होता है कि भेदके भासनेपर भी बिम्ब और प्रतिबिम्ब वास्तव में एक ही है । अतः ब्रह्म और जीव भी एक ही है, भेद-प्रतीति भ्रमसे होती है ।
जैसे परमार्थ ब्रह्म सत्, चित् आनन्दरूप निर्विशेष है, वैसे ही उसके साथ ऐक्य होनेसे जीव भी सत्, चित् आनन्दरूप निर्विशेष ही है । तथापि जैसे माया (विद्या) उपाधि से ब्रह्म सर्वज्ञता, अन्तर्यामिता भूतानुकम्पिता आदि कल्याण गुण - गणका भाजन होता है, वैसे ही अविद्या उपाधिके वश जीव अल्पज्ञ, दुःखित्व आदि अशुभ गुणोंसे युक्त हो जाता है
मायाबिम्बो वशीकृत्य तां स्यात्सर्वज्ञ ईश्वरः । श्रविद्यावशगस्त्वन्यः तद्वैचित्र्यादनेकधा ॥
'भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वे प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्म एतत् ' ( श्वे० १-१२ )
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