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भाषानुवादसहिता
अपि प्रत्यक्षबाधेन प्रवृत्तिः प्रत्यगात्मनि ।
पराश्चि खानीत्येतस्माद् वचसो गम्यते श्रुतेः ।। ९५ ।। का ही प्रतिपादन करते हैं
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पूर्वोक्त
प्रत्यक्षका बाघ करके श्रुति प्रत्यगात्माको बोधन करती है, यह बात 'पराश्चि खानि ' इत्यादि श्रुतिसे स्पष्ट सिद्ध होती है । अतएव श्रुति के सामने प्रत्यक्ष कुछ नहीं है ॥९५॥
अभ्युपगम्यैवमुच्यते न तु प्रमाणं सत्प्रमाणान्तरेण विरुद्धयत इत्यसकृदवोचाम । यत्राऽपि वाक्यप्रत्यक्ष योर्विरोधाशङ्का तत्राऽपि पुरुषमोहवशादेव सा जायते न तु परमार्थत इति । अत आह-मां चेज्जनयेद्वाक्यं प्रत्यक्षादिविरोधिनीम् | गौण प्रत्यक्षतां ब्रूयान्मुख्यार्थासम्भवाद् बुधः ॥ ९६ ॥
प्रत्यक्ष प्रमाणका श्रुति के साथ विरोध है, ऐसा मान कर उसका परिहार कहा गया । वस्तुतः यदि कोई भी प्रमाण है तो वह प्रमाणान्तर से विरुद्ध नहीं हो सकता, इस बातको हम बारबार पहले कह चुके हैं । जहाँ भी श्रुति और प्रत्यक्ष इन दोनोंके परस्पर विरोधकी प्रतीति होती है, वहाँपर भी वह प्रतीति पुरुषोंको मोहवशसे ही भासमान होता है । वात में विरोधकी शङ्का नहीं है । इसलिए कहते हैं---
यदि श्रुतिसे प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरुद्ध ज्ञान उत्पन्न होता है, तब विद्वान् पुरुषको कहना चाहिए कि 'मैं दुःखी हूँ' इस प्रकार जो प्रत्यक्षज्ञान होता है, वह गौण अर्थात् श्रन्तःकरण गत दुःखादिका ही श्रात्मामें प्रतिभास हो रहा है । क्योंकि स्वयमप्रकाश चैतन्यरूप आत्माका दुःखादिरूप परिणाम न होने से 'मैं दुःखी हूँ' ऐसा ज्ञान यथार्थ कैसे हो सकता है ? इसीलिए जीवको ब्रह्मरूप बतलानेवाले 'तत्त्वमस्यादि' वाक्य प्रत्यक्षका कोई विरोध नहीं है || ६६ ॥
तस्यार्थस्य सुखप्रतिपत्त्यर्थमुदाहरणम्
अग्निः सम्यraidsaौ जहासोच्चैश्च मञ्चकः ।
यथा तद्वदहंवृत्या लक्ष्यतेऽनर्हयाऽपि सः ॥ ९७ ॥
'मैं दुःखी हूँ' यह ज्ञान गौण है, इस बातको दृष्टान्त के द्वारा स्पष्ट करनेके लिए उदाहरण देते हैं-
यह अनि अच्छी तरहसे पढ़ता है, पलङ्ग खूब जोर से हँसा, इत्यादि प्रयोगो में जैसे अग्नि और पलङ्ग ये दोनों शब्द क्रमसे पढ़नेवाले विद्यार्थी और बालक या श्रन्य किसी पुरुषको लक्षणा द्वारा बोधन करते हैं । इसी प्रकार स्वयंप्रकाश चैतन्यका बोधन करने में समर्थ भी यह अहंवृत्ति लक्षणाद्वारा आत्माको ज्ञापन करती है ॥ ६७ ॥