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१३२ . .. नैष्कर्म्यसिद्धिः फिर से लौटता नहीं, इत्यादि शास्त्रप्रणाण के बलसे भावनाजनित फल भी नित्य हो सकता है " परन्तु यह ठीक नहीं। क्योंकि-शास्त्र जैसा पदार्थ है, उसी प्रकार उसके यथार्थ स्वरूपमात्रका बोधन करा देता है, न कि किसी वस्तु में एक नवीन बिलक्षण शक्तिको उत्पन्न कर देता है। और लोगों ने यह बात भी प्रसिद्ध है कि भावना ( सगुणोपासना) तथा कमसे जो फल उत्पन्न होता है, उसको द्रविड लोगोंकी मैत्रीके समान स्थिर नहीं मानना चाहिए ॥ ६३ ॥
यद्यपि प्रत्यक्षादिनमाणोपात्तमात्मनो दुःखित्वं तथापि तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थप्रत्यय एव बलीयानिति निश्चयोऽव्यभिचारिप्रामाण्यवाक्योपात्तत्त्वात् प्रमेयस्य च स्वत एव निर्दुःखित्वसिद्धेः । प्रत्यक्षादेस्तु सव्यभिचारित्वात् सम्भावनायाश्च पुरुषपरिकल्पनामात्रावष्टम्भत्वाच्चेति ।
निर्दुःखित्वं स्वतःसिद्ध प्रत्यक्षादेश्च दुःखिता ।
को ह्यात्मानमनादृत्य विश्वसेद्वाह्यमानतः ।। ९४ ।। [पहले यह कहा गया कि प्रमाणोंका परस्पर विरोध न होनेसे दुःखित्वादि प्रमाणान्तरके योग्य नहीं हैं, इसलिए तत्त्वमस्यादि वाक्य प्रमाणान्तरके साथ विरोध न होनेसे प्रसङ्ख्यानपरक नहीं हैं । अब यह कहते हैं कि दुःखित्यादिको प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्ध माननेपर भी हानि नहीं, किन्तु तत्त्वमत्यादि वाक्यजन्य ज्ञान ही प्रमाणान्तरसे सिद्ध अर्य का बाधक है-] यद्यपि आत्मामें दुःखादि प्रत्यक्षादि प्रमाण से सिद्ध है, तथापि तृत्वमस्यादि वाक्यजनित ज्ञान ही बलवान् है, ऐसा निश्चय यथार्थ है। क्योंकि वह निश्चय किसी काल में अप्रमाण नहीं हो सकता। क्योंकि वह वाक्यसे उत्पन्न हुआ है । और ज्ञान के विषयभूत आत्माकी निर्दु:खिता, स्वयम्प्रकाशमान होनेसे सुषुप्तिमें स्वतःसिद्ध है, इसलिए वह बलवान् है। और प्रत्यक्षादि प्रमाणों में दोषोंकी सम्भावना है। इस प्रकार सम्भावित दोषसे युक्त प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका प्रामाण्य स्थिर रहता नहीं। इसीलिए प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सिद्ध आत्मामें दुःख आदि केवल सम्भावनामात्रसे ही सिद्ध हैं, ऐसा कहना पड़ता है और सम्भावना केवल पुरुषकी कल्पनामात्रके जोरसे उत्पन्न होती है।
इसलिए वास्तवमें अात्मा दुःख आदि नहीं है, किन्तु निर्दु:खत्व ही स्वतःसिद्ध है। दु:ख श्रादि प्रत्यक्षादि प्रमाण से सिद्ध हैं । जो स्वयं सिद्ध है वही वास्तव है । तब कौन पुरुष अपने आत्माका अनादर करके बाह्यप्रमाणोंके ऊपर विश्वास करेगा? ॥ १४ ॥
सम्बन्धार्थ एव