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भाषानुवादसहिता
१३१ स्त्रीशरीरमें केवल पुरुषकी कल्पनामात्रसे श्रारोपित कामिनी, इस प्रकारका निस्तत्व ज्ञान होता है। .
समाधान-ऐसा मत कहिए ? क्योंकि
अभ्यासके बढ़नेसे बुद्धिमें जो कुछ विशेषता उत्पन्न होती है, वह एकाग्रता ही है । क्योंकि प्रमाणोंका अभ्यास करनेपर ही वे प्रमाण अर्थका अवबोधन नहीं करते ॥३०॥
अभ्यासोपचिता कृत्स्नं भावना चेन्निवर्तयेत् ।
नैकान्तिकी निवृत्तिः स्याद् भावनाजं हि तत्फलम् ।। ९१ ॥
इसपर ऐसी शङ्का होती है कि "अभ्याससे उत्पन्न हुई भावना सम्पूर्ण सांसारिक दुःखोंको दूर कर ब्रह्मरूपत्व प्राप्ति में कारण है। ऐसा श्रुप्तिमें लिखा है कि इस लोकमें पुरुष जैसी भावना करता है, मरनेके बाद वह वैसा ही होता है।" इसका समाधान यह है कि श्रुतिमें जो लिखा है वह सत्य हो है। परन्तु वह प्राप्ति श्रात्यन्तिक नहीं हो सकती । भावना से उत्पन्न होने के कारण अनित्य हो जाएगी। अतएव भावनाका फल उपास्यका साक्षात्कार होना ही है, न कि ऐकान्तिक और श्रात्यन्तिक दुःखकी निवृत्ति । अतएव वाक्य निरर्थक नहीं हुआ ॥ ११ ॥
अपि चाह--- दुःख्यस्मीत्यपि चेद् ध्वस्ता कल्पकोट्युपबृंहिता । स्वल्पीयोऽभ्यासना स्थास्न्वी भावनेत्यत्र का प्रमा ॥ ९२ ।। और भी इस विषयमें कहते हैं
अनादि कालसे, न जाने कितने कोटि कोटि कल्प व्यतीत हो चुके हैं तब से, प्रवृत्त हुई 'मैं सुखी हूँ', 'दुःखी हूँ' इत्यादि भावना यदि निवृत्तिको प्राप्त हो जाती है, तब फिर अल्पकालके अभ्याससे उत्पन्न हुई यह ब्रह्मभावना चिरस्थायिनी हो जाएगी, इसमें क्या प्रमाण है ? ॥ १२ ॥
ननु शास्त्रात्स्थास्नुत्वं भविष्यति ? नैवम् । यथावस्थितवस्तुयाथात्म्यावबोधमात्रकारित्वाच्छास्त्रस्य । न हि पदार्थशक्त्याधानकृच्छास्त्रम् । प्रसिद्धं च लोके
भावनाजं फलं यत्स्यायच्च स्यात्कर्मणः फलम् । न तत्स्थास्न्विति मन्तव्यं द्रविडेष्विव संगतम् ॥ ९३ ॥ इसपर ऐसी शङ्का उठ सकती है कि "न स पुनरावर्तते-वह उपासक १-स्वल्पीयाभ्यासजा, ऐसा पाठ भी है। २-संगतिः, ऐसा पाठ भी मिलता है।