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नैष्कर्म्यसिद्धिः
हो सकता । अतः ऐसा मान लेनेसे भी निर्मोक्ष प्रसङ्ग दोषसे श्राप छूट नहीं सकते हो । इसलिए कहते हैं कि -
आत्मामें दुःखादिसंसार प्रमाणसे ही ज्ञात हुआ है, ऐसा मान लेनेपर दुःख आदि आत्मामें पारमार्थिक ही हैं, ऐसा कहना पड़ेगा । तब उनकी निवृत्ति किसी प्रकार से नहीं हो सकेगी। जैसे अग्निकी उष्णता अमिके रहते किसी प्रकार भी निवृत्त नहीं हो सकती। वैसे हो दुःखादि परिणाम परिणामी पदार्थके ( आत्मा ) अत्यन्त निवृत्त हुए बिना तो कदापि नहीं निवृत्त हो सकेंगे । अतः परिणामी - आत्माकी - भी निवृत्ति होती है, ऐसा मानो तो आत्माकी निवृत्ति हो जानेपर बौद्धाभिमत शून्यवादका प्रसङ्ग हो जाएगा ॥ ॥
अथ मतम् -
निराकुर्यात्प्रसङ्ख्यानं दुःखित्वं चेत्स्वनुष्ठितम् । प्रत्यक्षादिविरुद्धत्वात्कथमुत्पादयेत्प्रमाम्
यदि ऐसा कहिए कि 'दुःखादिको आत्मा के स्वरूपभूत भी मान लें तो भी उनकी निवृत्ति हो सकती है । क्योंकि ध्यान अच्छे प्रकार करनेसे वह दुःखिस्वादिसे विपरीत तत्त्वज्ञानको उत्पन्न करके दुःखादिको दूर कर सकता है ?' तो यह भी ठीक नहीं । क्योंकि प्रसङ्ख्यान अर्थात् चित्तकी एकाग्रतारूप ध्यान ( परिगणित प्रमाणों के मध्य में किसी भी प्रमाणके अन्तर्गत नहीं है । फिर भी, यदि इसको प्रमाण मान भी लिया जाय तो भी वह ) प्रत्यक्षादि विरोध होनेसे प्रमाका उत्पादन कैसे कर सकेगा ? ॥ ८६ ॥ ननु प्रसङ्ख्यानं नाम तत्त्वमस्यादिशब्दार्थान्वयव्यतिरेकयुक्तिविषयबुद्ध्याऽऽग्रेडनमभिधीयते तच्चानुष्ठीयमानं प्रमितिवर्द्धनया परिपूर्णा प्रमितिं जनयति न पुनरैकाय्यवर्धनयेति । यथाऽ शेषाशुचिनीडे स्त्रीकुणपे कामिनीति निर्वस्तुकः पुरुषायास मात्रजनितः प्रत्यय इति । तन्न । यतः
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अभ्यासोपचयाद् बुद्धेर्यत्स्यादैकाय्यमेव तत् ।
न हि प्रमाणान्यभ्यासात्कुर्वन्त्यर्थावबोधनम् ॥ ९० ॥
शङ्का - तस्वमस्यादि वेदान्तवाक्यसे प्रतिपाद्य अर्थका पुनः पुनः ज्ञान तथा श्रन्वयव्यतिरेक यु योंका जो बार-बार ज्ञान है, उसीको 'प्रसंख्यान' कहते है । वह प्रसङ्ख्यान दृढ़तर संस्कारो उत्पन्न करता हुआ प्रामतिको बढ़ाकर परिपूर्ण ज्ञानको उत्पन्न करता है, न कि केवल एकाग्रता को बढ़ाकर । जैसे सम्पूर्ण अपवित्रताओं की खान