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नष्कस्यसिद्धिः श्रावितो वेत्ति वाक्यार्थं न चेत्तत्त्वमसीत्यतः ।
त्वं पदार्थानभिज्ञत्वादतस्तत्प्रक्रियोच्यते ॥ १ ॥ 'त्वं' पदके अर्थका ज्ञान न होने के कारण सुनानेपर भी 'तत्त्वमसि' इत्यादि वान्यांका अर्थ समझमें नहीं आता। इसलिए 'त्वं' पदके अर्थ का प्रतिपादन करते हैं ॥१॥
बोऽयमहं ब्रह्मेति वाममार्थस्तत्त्रातिनिधिदेवेति प्रत्यक्षादीनामनेवंविषयत्वात्, इत्यवादिष, तस्य विशुद्ध्यर्थमनैकान्तिकत्वं पूर्वपक्षत्वेनोपस्थाप्यते।
यह जो मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकारका ज्ञान है, वह बाय से ही उत्पन्न होता है । क्योकि चक्षु आदि-प्रत्यक्षादि-प्रमाण उसका विषय नहीं कर सकते, ऐसा पहला कहा गया है। अब उसकी पुटि (परीक्षा) करने के लिए पाक्यक बिना जान उत्पन्न हो सकता है, इसलिए वाक्य नियनरूपसे शान उत्पन्न नहीं करा' इस प्रकार का पूर्वपक्ष उपस्थापित करते हैं।
कृत्स्नानात्मनिवृत्तौ च कश्चिदानोति निनिन् ।
श्रुतवाक्यस्मृतेश्चाऽन्यः स्मार्यते च वचोऽपरः ।। २ ।। - कोई शुद्धमति महात्मा तो सम्पूर्ण अनात्मवस्तुओंकी निवृत्तिहोने पर, भेक उपाधिके न रहनेसे, वाक्योपदेशके बिना ही एकतारूप मोक्षको प्राप्त होते है और कोई सुने हुए वाक्योंका स्मरण कर के, और कई लोग प्राचार्या पागा द्वारा मारा कराए जानेपर 'मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकार समझकर, मुक्त होने है। (इगतान उदाहर. णोंमें से प्रथम उदाहरणमें तो ज्ञान होनेके लिए वाक्य की काई अावश्यकता ही नहीं है और अन्य दो उदाहरणोंमें भी वाक्यके स्मरण या स्मारकी ही आवश्यकता है, वाक्य की नहीं । इससे यह जान पड़ता है कि वाक्य ज्ञानोत्पत्तिका नियत कारण नहीं है ) ॥२॥
एतत्प्रसङ्गन श्रोत्रन्तरोपन्यासमुभयत्रापि सम्भावनायाऽऽह
वाक्यके विना भी ज्ञान उत्पन्न होता है, यह कहा । अब इसी प्रसङ्ग वाक्य नियतरूपसे ज्ञान उत्पन्न नहीं करता, यह दिखाने के लिए दूसरे प्रकार के श्रीगायों का उदाहरण देकर कहीं कहीं वाक्यसे भी ज्ञान उत्पन्न होता है, यह कहते हैं----
वाक्यश्रवणमात्राच पिशाचकवदाप्न यात् ।
त्रिषु यादृच्छिकी सिद्धिः स्मार्यमाणे तु निश्चिता ॥३॥ जब श्रीकृष्ण अर्जुनको ज्ञानोपदेश दे रहे थे, तब वे वाक्य किसी पिशाचने भी सुन लिए । उसको उन वाक्योंके श्रवणमात्रसे ही ज्ञान हो गया। इस प्रकार
१-उत्थाप्यते, पाठ भी है । २-स्मर्यमाणे, भी पाठ है।