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भाषानुवादसहिता जब कि 'तत्त्वमसि' इत्यादि ब्रह्मज्ञान-प्रतिपादक वाक्योंका अर्थ ब्रह्मज्ञान-प्रतिपादन करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता है । अतः सभी आश्रमवालोंकी मुक्ति वाणी, मन और शरीर द्वारा किए हुऐ कर्मोंसे नहीं हो सकती, क्योंकि वह तो केवल ज्ञानसे ही होती है ।। ६९ ॥
तस्माच कारणादेतदप्युपपन्नम्इस कारणसे भी यही उपपन्न (सिद्ध) हुआ कि
स्वमनोरथसङ्क्लप्त-प्रज्ञाध्मातधियामतः !
श्रोत्रियेष्वेव वाचस्ताः शोभन्ते नाऽऽत्मवेदिषु ॥ १०॥ अपने मनोरथोसे कल्पित किये बनावटी विचारोंसे जिनकी बुद्धि परिपूर्ण है, ऐसे लोगोंकी, पीछे कही हुई ये सब बाने याज्ञिक लोगोसे ही शोभा पाती हैं, ब्रह्मज्ञानियों में नहीं ।। १००॥ इति श्रीमच्छङ्करभगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीसुरेश्वराचार्यकृतनैष्कर्म्यसिद्धौ भाषानुवादसहिते
प्रथमोऽध्यायः समाप्तः।
अथ द्वितीयोऽध्यायः
--*:-- प्रत्यक्षादीनामनेवंविषयत्वात् तेषां स्वारम्भकविषयोपनिपातित्वात् । अात्मनश्चाऽशेषप्रमेयवेलक्षण्यात् सर्वानथैकहेत्वज्ञानापनोदिज्ञानदिवाकरोदयहेतुत्वं वस्तुमात्रयाथात्म्यप्रकाशनपटीयसस्तत्त्वमस्यादेवचस एवेति वह्वीभिरुपपत्तिमिः प्रदर्शितम् । अतस्तदर्थाप्रतिपनौ यत्कारणं तदपनयनाय द्वितीयोऽध्याय आरभ्यते ।
प्रत्यक्ष (चक्षु) आदि प्रमाण अपने अपने कारण शब्दादिगुणयुक्त श्राकाशादिसे उत्पन्न होने के कारण शब्दादि विपयों को ही ग्रहण करते हैं । और आत्मा आकाशादिके समान नहीं है, किन्तु समस्त प्रमेय पदार्थोंसे वह विलक्षण ही है। इसलिए समस्त अनथों के एकमात्र कारण अज्ञानका समूलोच्छेदन करनेवाले ज्ञानरूप सूर्योदयका कारण एवं वस्तुमात्रके स्वरूपको प्रकाशित करनेमें समर्थ 'तत्त्वमसि' इत्यादि वदान्त वाक्य ही है, इस बातको बहुत सी युक्तियोंसे सिद्ध किया। अब उसके अर्थको-आत्माको---न जाननेमें जो कारण हैं, उनको दूर करनेके लिए द्वितीय अध्यायका प्रारम्भ किया जाता है।