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नैष्कर्म्यसिद्धिः धावेदिति न दानार्थे पदं यद्वत्प्रयुज्यते ।
एधीत्यादि तथा नेच्छेत् स्वतः सिद्धार्थवाचिनि ।। ९७ ॥ .. और जो पहले आपने यह कहा था कि 'क्रियापद के बिना कोई वाक्य ही नहीं बन सकता, इसलिए वेदान्तवाक्य भी क्रियाके प्रतिपादक है, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि ( यद्यपि वाक्य क्रियापदके बिना अपना स्वरूप लाभ नहीं कर सकता, तथापि ) चाहे जहाँ, चाहे जिस किसी क्रियाका अध्याहार नहीं करना चाहिए। किन्तु जो क्रिया जहाँ ईप्सित अर्थके सम्बन्धको संघटित कर सकती हो, उसीका अध्याहार करना उचित है। ऐसी क्रियाको तो हम भी स्वीकार करते ही हैं। और वह क्रिया ईप्सित वाक्यार्थके अनुकूल है तथा मिथ्या अर्थकी साधिका भी नहीं है । यहाँ भी उत्पत्ति, वृद्धि, स्थिति, परिणति, क्षय और नाश-इन छः प्रकार के विकारोंसे रहित, द्वैतबुद्धिरूप अनर्थसे श्रात्यन्त पृथक् तथा स्वयम्प्रकाश आत्मरूप वस्तुका प्रतिपादन करना अभीष्ट है। इसलिए 'असि' (है), 'अस्मि' (हूँ) इत्यादि अपने माहात्म्यसे ही सिद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेवाले क्रियापदोंका अध्याहार करना चाहिए । विरुद्धअर्थका प्रतिपादन करनेवालोंका नहीं। जिस प्रकार 'दानरूप' अर्थ में 'धावत्-दौड़े', इस क्रियाका प्रयोग नहीं किया जा सकता है, इसी प्रकार स्वतःसिद्ध तथा वृद्धयादि विकारोंसे रहित अात्मवस्तुके प्रतिपादक वाक्यों में 'एधि'-बढ़ो, इत्यादि विकार-प्रतिपादक क्रियाओं का प्रयोग नहीं होता ॥ ६७ ॥
न च यथोक्तवस्तुवृत्तप्रतिपादनव्यतिरेकेण तत्त्वमस्यादिवाक्यं' वाक्यार्थान्तरं वक्तीति शक्यमध्यवसितुमित्याह
'तत्त्वमसि' इत्यादि वेदान्तवाक्य पूर्वोक्त स्वतःसिद्ध, उत्पत्ति क्षयसे रहित प्रात्मस्वरूप वस्तुका प्रतिपादन नहीं करते । किन्तु "तदहमस्मि-वह मैं हूँ, ऐसी उपासना करे" ऐसी उपासना विधिका प्रतिपादन करते हैं, यह कहना भी युक्त नहीं है, यह बात कहते हैं
तत्त्वमस्यादिवाक्यानां स्वतःसिद्धार्थबोधनात् ।
अर्थान्तरं न संद्रष्टुं शक्यते त्रिदशैरपि ।। ९८ ।। 'तत्त्वमसि' इत्यादि वेदान्तवाक्योंका, स्वतःसिद्ध अात्मवस्तुका बोध कराने के अतिरिक्त और कोई अर्थ देवता लोग भी नहीं कर सकते ॥१८॥
यस्मादेवम्
अतः सर्वाश्रमाणां तु वाङ्मनःकायकर्मभिः । • स्वनुष्ठितैन मुक्तिःस्याज्ज्ञानादेव हि सा यतः ।। ९९ ॥ १-तत्त्वमसि वाक्यं, भी पाठ है। २-वाक्यमर्थान्तरं वक्ति, भी पाठ है।