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भाषानुवादसहिता
सुखदुःखादिभियोग श्रात्मनो नाऽहमेक्ष्यते' | पराक्त्वात्प्रत्यगात्मत्वाज्जैमिनिः प्रयेते कथम् ॥ ९४ ॥
और प्रवृत्तिका कारण प्रयोजन भी नहीं है । क्योंकि सुखदुःखादिका श्रात्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है । उसमें जिन सुखदुःखादिकी प्रतीति हो रही है, वे तो सब ग्रन्तःकरणसे ही ज्ञात होते हैं । और सुखदुःखादि सब बाह्य है तथा आत्मा प्रत्यकूरूप है, अर्थात् सुखदुःखादि दृश्योंका द्रष्टा है । इस कारण से भी जैमिनिके शरीर में रहनेवाले आत्माकी प्रवृत्ति नहीं बन सकती ॥ ६४ ॥
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किश्व
न तावद्योग एवाऽस्ति शरीरेणाऽऽत्मनः सदा । विषयैर्दूरतो नास्ति स्वर्गादौ स्यात्कथं सुखम् ।। ९५ ।।
और भी सुनिए ! श्रात्माका शरीर के साथ सम्बन्ध किसी अवस्था में जब नहीं है,
तब विषयों के साथ तो सुतरां नहीं है । फिर स्वर्गादि स्थानों में आत्माके सुखका सम्बन्ध किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? ॥ ६५ ॥
यस्मादन्यथा नोपपद्यते ।
नराभिमानिनं तस्मात् कारकाद्यात्मदर्शिनम् ।
मन्त्र आहोर कृत्य कुर्वन्निति न निर्द्वयम् ।। ९६ ।।
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चूँकि 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि' यह मन्त्र और किसी प्रकारसे भी सङ्गत नहीं हो सकता, इसलिए जिनको मनुष्यत्वका अभिमान है तथा जो अपने आपको कर्त्ता भोक्ता आदि समझते हैं, उनके लिए ही उक्त मन्त्र समस्त श्रायुपर्यन्त कर्म करनेकी याज्ञा देता है । जो अद्वितीय ब्रह्मको प्राप्त हो गये हैं उनके लिए नहीं ॥ ६६ ॥ चोक्तं 'विरहय्य' इति, तदपि न सम्यगेव । तथाऽपि तु न या काचित्क्रिया यत्र व चाध्याहरणीया, किन्तु या यत्राऽभिप्रतसम्बन्धं वटयितुं शक्नोति याकाङ्क्षां च वाक्यस्य पूरयति सैवाऽध्याहरणीया । एवं विशिष्टा च क्रियाऽस्माभिरभ्युपगतैव । सा तूपादित्सितवाक्यार्थाविरोधिन्येव नाऽभूतार्थप्रादुर्भावफलेति । षड्भावविकाररहितात्मवस्तुनो निर्धूताशेषद्वैतानर्थस्याऽपराधीनप्रकाशस्य विजिज्ञापयिषितत्वादस्यस्मीत्यादिक्रियापदं स्वमहिमसिद्धार्थप्रतिपादनसमर्थमभ्युपगन्तव्यं नहि विपरीतार्थप्रतिपादनमिति ।
१ - नाहमेष्यते,
भी पाठ है I