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नैष्कर्म्यसिद्धिः
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सिद्धिमें उपयोग नहीं है क्योंकि वह चेतन है । उसका उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिए बुद्धि आदि पदार्थोंको आत्मा के स्वरूप में प्रवेशित न करके, उससे पृथक् देखने से, ये सब वास्तव में सद्रूप ही प्रतीत होने लगते हैं ॥ ११४ ॥
कुतो न्यायवलादेवं निश्चितं प्रतीयते ? यस्मात् । नित्यां संविदमाश्रित्य स्वतः सिद्धामविक्रियाम् । सिद्धायन्ते धियो बोधास्ताँचा 'ssश्रित्य घटादयः ॥ ११५ ॥
शङ्का - किस युक्ति के बल से यह निश्चित जाना जाता है ? समाधान - जिस कारण - स्वयम्प्रकाश, निर्विकार तथा नित्य ज्ञानस्वरूप श्रात्मा को ही आश्रय करके बुद्धिकी वृत्तियाँ सिद्ध होती हैं और उनसे ये घटादि पदार्थ सिद्ध होते हैं । ॥ ११५ ॥
यस्मान्न कयाचिदपि युक्त्यात्मनः कारकत्वं क्रियात्वं फलत्त्व - वोपपद्यते । तस्मादात्मवस्तुयाथात्म्या नवबोध मात्रोपादानत्वान्नभसीव रजो घूमतुषार नीहारनीलत्वाद्याभासो यथोक्तात्मनि सर्वोऽयं क्रियाकारकफलात्मक संसारोऽहं ममत्वयत्नेच्छादिमिध्याध्यास एवेति सिद्धम् । इमर्थमाह ।
चूँकि किसी युक्ति से भी श्रात्मा में क्रिया, कारण, फल इत्यादि भेद सिद्ध नहीं होता, इस कारण श्रात्मत्रस्तु के यथार्थ स्वरूपको न जाननेमात्र से ही यह उत्पन्न हुआ है । इसलिए आकाश में रज, धूम, तुषार और नीलता इत्यादि भ्रान्ति के समान यह सब क्रिया, कारक और फल रूप संसार अहङ्कार, ममता, यत्न और इच्छा आदिका मिथ्याध्यास ही है, यह सिद्ध हुआ । इसी बात को कहते हैं
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अहं मिथ्याभिशापेन दुःख्यात्मा तद्बुभुत्सया । इतः श्रुतिं तथा नेतीत्युक्तः कैवल्य मास्थितः ।। ११६ ।। मिथ्याभिमानसे दुःखको आरोपित कर दुःखसे छूटने की इच्छा से यह आत्मा (करुणामयी जननी के समान भगवती) श्रुतिकी शरण में गया । तब 'नेति नेति' इत्यादि श्रुतिद्वारा भ्रान्ति जब निवृत्त हुई, तत्र स्वस्थ होकर कैवल्यरून मोक्षको प्राप्त होता
॥ ११६ ॥
१ - ताश्चाश्रित्य ऐसा पाठ भी है । २ - तमुत्सया, के स्थान में कहीं कहीं तच्छुत्सया' ऐसा भी पाठ हैं ।
३ – ह्येकल श्राश्रितः, भी पाठान्तर है ।