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भाषानुवादसहिता
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नाश इन सब अवस्थाओं में विकार रहित एवं अनुभवरूपसे वर्तमान है, उसीको अपना स्वरूप समझो और जो नष्ट होनेवाले ममता श्रादि हैं, उन्हें अपना स्वरूप मत समझो ॥ १११ ॥
स्वतः सिद्धाऽऽत्मचैतन्य प्रतिविम्बिताऽविचारितसिद्धिकाssमानवबोधोत्थेतरेतरस्वभावापेक्ष सिद्धत्वात्स्वतश्चाऽसिद्धेरनात्मनो द्वैते
न्द्रजालस्य
न स्वयं स्वस्य नानात्वं नाऽवगत्यात्मना यतः । नोभाभ्यामध्यतः सिद्धमद्वैतं द्वैतबाधया' ।। ११२ ।। अपनी सिद्धिके लिए दूसरे प्रमाणों की अपेक्षा न करनेवाले चैतन्यस्वरूप श्रात्मा के प्रतिबिम्बित होने से प्रकाशमान तथा अविवेकावस्था में ही प्रतीत होनेवाले श्रतएव श्रात्माके अज्ञान से ही उत्पन्न और ग्रापसमें एक दूसरेकी अपेक्षा रखकर सिद्ध होनेवाले, स्वयं सिद्ध न होनेवाले इस द्वतरूप इन्द्रजालका -नानात्व न तो अपने ही से वास्तव में सिद्ध है, क्योंकि यह स्वयं जड़ है । और न चैतन्य आत्मा द्वारा इसकी वास्तवि क सिद्धि हो सकती है; क्योंकि जड़ और चेतनकी एकता नहीं है । इस प्रकार जत्र द्वत प्रपञ्च दोनों प्रकार से बाधित है, तब सुतरां द्वैत सिद्ध हुआ ॥ ११२ ॥ यथोक्तार्थद्रढिम्ने श्रुत्युदाहरणोपन्यासः ।
पूर्वोक्त अर्थको दृढ़ कने के लिए श्रुतिवाक्योंको उद्धृत करते हैंनित्यावगतिरूपत्वात् कारकादिर्न चाऽऽत्मनः । अस्थूलं नेति नेतीति न जायत इति श्रुतिः ॥ आत्मा नित्य ज्ञानस्वरूप है । इसलिए उसमें कारक आदि द्व ैत नहीं है । इस बातको "यह श्रात्मा स्थूल नहीं है" "यह नामरूपात्मक पदार्थ आत्मा नहीं है" "यह श्रात्मा उत्पन्न नहीं होता" इत्यादि श्रुतियाँ पुष्ट करती हैं ॥ ११३ ॥
११३ ॥
सर्वस्यास्य ग्राहकादे द्वैतप्रपञ्चस्यात्मानवबोधमात्रोपादानस्य
स्वयं से मशक्यत्वात् आत्मसिद्धेश्वानुपादेयत्वात्आत्मनश्वेन्निवार्यते
बुद्धिदेहघटादयः ।
षष्टगोचरकल्पास्ते विज्ञेयाः परमार्थतः ।। ११४ ॥
सम्पूर्ण बुद्धि आदि द्वत प्रपञ्च, जोकि आत्मा के अज्ञानसे ही भासमान होता है, स्वयं अपने से जड़ होने के कारण सिद्ध नहीं हो सकता और आत्माकी सिद्धिका इसकी
१ - द्वैतभाषया, ऐसा भी पाठ है ।
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