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नैष्कर्म्यसिद्धिः ग्राहकादि निष्ठेव ग्राहकादिभावाभावविभागसिद्धिः कस्मान्नेति चेत्तदाह ।
स्वसाधनं स्वयं नष्टो न नाशं वेत्यभावतः ।
अतएव न चाऽन्येषामतोऽसौ भिन्नसाक्षिकः ॥ १०९ ॥
शङ्का-पूर्वोक्त ग्राह्य, ग्रहण तथा ग्राहक इत्यादि पदार्थोकी सत्ता या असत्ताकी सिद्धि इन्हींसे क्यों नहीं हो सकती ? .
उत्तर-ग्राहकादि पदार्थ प्रमाण रूप न होनेसे अपनी सत्ताको ग्रहण नहीं कर सकते तथा नष्ट हो जानेपर असत् हैं । इसलिए वे अपने असत्त्वका (अभावका) भी ग्रहण नहीं कर सकते। इसीलिए औरों को भी सिद्धि इनसे नहीं हो सकती, अतएव इनका प्रकाशक-साक्षी कोई और ही है ॥ १०६ ॥
ग्राहकादेरन्यसाक्षिपूर्वकत्वसिद्धेः . स्वसाक्षिणोऽप्यन्यसाक्षिपूर्वकत्वादनवस्थेति चेत्तन्न । साक्षिणो व्यतिरिक्तहेत्वनपेक्षत्वात् । अत आह ।
__शङ्का ग्राहकादिकी सिद्धि यदि किसी अन्य साक्षीसे होती है, तो अपने साक्षीको सिद्धि भी किसी दूसरे साक्षीको माननी पड़ेगी। इस प्रकारसे अनवस्था दोष आता है ?
उतर-साक्षीको अपनी सिद्धि के लिए किसी दूसरे कारणकी अपेक्षा नहीं है। इसलिए कहते हैं
धीवन्नापेक्षते सिद्घिमात्माऽन्यस्मादविक्रियः । निरपेक्षमपेक्ष्यैव सिद्धयत्यन्ये न तु स्वयम् ॥ ११० ॥
अात्मा अविकारी है, अतएव बुद्धि के समान अपने प्रकाशके लिए वह दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता । क्योंकि अन्य सब पदार्थ प्रात्मासे प्रकाश्य हैं; इसलिए वे अात्माके प्रकाशक नहीं हो सकते ? ॥ ११० ॥
यतो ग्राहकादिष्वात्मभावोऽविद्यानिबन्धन एव । तस्मात् । । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां विभज्यानात्मनः स्वयम् । उत्पत्तिस्थितिनाशेषु योऽवगत्यैव वर्तते। .
जगतोऽविकारयाऽवेहि तमस्मीति न नश्वरम् ॥ १११॥ ग्राहक, ग्रहण और ग्राह्यमें आत्मभाव अविद्यामूलक ही है। इसलिए-अन्वय और व्यतिरेकके द्वारा स्वयं अनात्माको पृथक् करके जो जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और