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भाषानुवादसहिता तस्याऽस्य मुमुक्षोः श्रौताद्वचसः स्वमनिमित्तोत्सारितनिद्रस्येवेयं निश्चितार्था प्रमा जायते ।
नाऽहं न च ममाऽऽत्मत्वात्सर्वदानात्मवर्जितः । भानाविव तमोध्यासोऽपह्नवश्व तथा मयि ।। ११७ ॥
उस (पूर्वोक्त) मुमुक्षुको अतिवाक्योंसे स्वप्नके कारण रूप निद्रासे रहित पुरुषके समान निश्चयात्मक यह ज्ञान होता है कि
मैं अहङ्कार नहीं हूँ और मेरा कोई नहीं है। मैं केवल आत्मस्वरूप हूँ। इसलिए सर्वदा अनात्मासे अस्पृष्ट हूँ। जिस प्रकार सूर्य में अन्धकारकी भ्रान्ति होना और उसका नाश होना, दोनों ही मिथ्या हैं। इसी प्रकार मुझमें बन्ध और मोक्ष दोनों ही मिथ्या है ।। ११७॥
सोऽयमेवं प्रतिपन्नस्वभावमात्मानं प्रतिपन्नोऽनुक्रोशति । यत्र त्वस्वेति साटोपं कृत्स्नद्वैतनिपेधिनीम् । प्रोत्सारयन्तीं संसारमन्यौष श्रुतिं न किम् ॥ ११८ ॥
इस प्रकार वह ब्रह्मज्ञानी सच्चिदानन्दस्वरूप आत्माको पाकर पाश्चात्ताप करता है कि, श्राहा-"जिस अवस्थामें ज्ञानी पुरुषकी दृष्टि से सम्पूर्ण प्रपञ्च अात्मस्वरूपमें लीन हो जाता है उस अवस्थामें किस कारण से, किस वस्तुको देखे, कोई वस्तु ही पृथक् न रही!" इस प्रकार बलपूर्वक समस्त संसारका निषेध करनेवाली श्रुतियोंको मैंने क्या (पहले ) नहीं सुना था ? ॥ ११८ ॥
इत्योमित्यवबुद्धात्मा निष्कलोऽकारकोऽक्रियः ।
विरक्त इव बुद्ध्यादेरेकात्मत्वमुपेयिवान् ॥ ११९ ॥
इस प्रकार वह ब्रह्मज्ञानी प्रणवके अर्थ अात्मस्वरूपको जानकर अज्ञान तथा कारक श्रादि द्वतसे रहित होकर बुद्ध्यादिसे विरक्त हो अात्मस्वरूपमें स्थित हो जाता है ॥ ११६ ॥ इति श्रीमत्सुरेश्वराचार्यविरचितायां नैष्कर्म्यसिद्धौ सम्बन्धाख्यायां
द्वितीयोऽध्यायः
१-संसारं मय्यश्रौषम्, भी पाठभेद है। १-इत्योमित्येव बुद्धात्मा, ऐसा और निष्फलोऽकारकः, ऐसा पाठ भी है।