________________
नैष्कर्म्यसिद्धिः समप्रधानयोरप्यसम्भव एव
कर्म और ज्ञान दोनोंका समप्रधानभाव (अर्थात् मोक्ष-सिद्धिमें कर्म और ज्ञान दोनोंकी तुल्यबलता ) भी नहीं हो सकता, क्योंकि
बाध्यबाधकभावाच्च पञ्चास्योरणयोरिव ।
एकदेशानवस्थानान्न समुच्चयता तयोः ॥ ५५ ॥ जिस प्रकार सिंह और मेषका ( मेड़का) परस्पर विरोध होनेके कारण एक स्थानपर रहना असम्भव है। वैसे ही ज्ञान और कर्मका बाध्यवाधक भाव (अर्थात् ज्ञान कर्मका बाधक और कर्म ज्ञानसे बाध्य ) होने के कारण, ये दोनों एक ही समय एक पुरुष में रह ही नहीं सकते, इसलिए समप्रधानभाव भी नहीं हो सकता ॥ ५५ ॥
कुतो बाध्यबाधकभावः, यस्मात् शङ्का-इन दोनोंका-कर्म और ज्ञानका बाध्य-बाधकभाव क्यों है ?
अयथावस्त्वविद्या स्याद्विद्या तस्या विरोधिनी ।
समुच्चयस्तयोरेवं रविशावरयोरिव ॥ ५६ ॥ समाधान-चूंकि अज्ञान मिथ्यावस्तुविषयक है और ज्ञान उसका विरोधी है ! इसलिए सूर्य और अन्धकारके समान इन दोनोंका समुच्चय हो नहीं सकता ॥ ५६ ।।
तस्मादकारकब्रह्मात्मनि परिसमाप्तावबोधस्याऽशेषकर्मचेदना नाम चोद्यस्वाभाव्यात्कुण्ठिता, कथम् ताभिधीयते
____ कर्ता, कर्म तथा करण आदि कारकोंके लक्षणोंसे रहित अर्थात् जो वास्तव में किसीका का, कर्म या करण आदि नहीं हो सकता ऐसे ब्रह्म वस्तुका ज्ञानके द्वारा जिसने साक्षात्कार कर लिया है, उस पुरुषको कर्ममें प्रवृत्त करानेमें सम्पूर्ण विधिनिषेध शास्त्र कुण्ठित-स्वभाव हो जाते हैं । इसका कारण क्या है ? यह दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं
बृहस्पतिसवे यद्वत् क्षत्रियो न प्रवर्तते ।
ब्राह्मणत्वाद्यहंमानी विप्रो वा क्षात्रकर्मणि ॥ ५७ ॥ जैसे क्षत्रियत्वका अभिमान रखनेवाले पुरुषकी ब्राह्मण के लिए विहित बृहस्पतिसव नामक यागमें प्रवृत्ति नहीं होती और ब्राह्मणत्वका अभिमान रखनेवाले की प्रवृत्ति भी क्षत्रियोचित-राजसू यादि-कर्ममें नहीं होती ॥ ५७ ॥
यथाऽयं दृष्टान्त एवं दार्टान्तिकोऽपीत्याहजैसा यह दृष्टान्त है, वैसा ही दाष्टीन्तिक भी है, यह कहते हैं
विदेहो वीतसन्देहो नेतिनेत्यवशेषितः । देहाधनात्मक तद्वत् तक्रियां वीक्षतेऽपि न ।। ५८ ॥