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भाषानुवादसहिता इसी प्रकार, जिस पुरुषका देहाभिमान तथा सम्पूर्ण सन्देह नष्ट हो गये हैं, जो 'नेति नेति' इत्यादि श्रुति-वाक्यों द्वारा अनात्म वस्तुओंका बाध करके केवल आत्मस्वरूपमें स्थित है, वह (निरभिमान एवं निःसन्दिग्ध ) पुरुष अनात्माकी-देहादि कोक्रियाओंको देखता तक नहीं है ॥ ५८ ॥
तस्याऽर्थस्याऽऽविष्करणार्थमुदाहरणम्
देहादिमें मिथ्याभिमानवालेकी ही प्रवृत्ति होती है, अभिमान-रहितकी नहीं । इस विपयको दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं
मृत्स्नेमके यथेभत्वं शिशुरध्यस्य बल्गति ।
अध्यस्याऽऽत्मनि देहादीन् मूढस्तद्वद्विचेष्टते ॥ ५९ ।। जैसे मिट्टीके हाथीमें (खिलौनेमें ) यह हाथी है, ऐसा आरोप करके बालक क्रीडा करता है ऐसे ही अज्ञानी पुरुष अनात्म देहादि वस्तुओंका आत्मामें अारोप . कर नाना प्रकारकी चेष्टाएँ करता है ॥ ५९ ॥
न च वयं ज्ञानकर्मणोः सर्वत्रैव समुच्चयं प्रत्याचक्ष्महे, यत्र प्रयोज्यप्रयोजकभावो ज्ञानकर्मणोस्तत्र नाऽम्मत्पित्राऽपि शक्यते निवारयितुम् । तत्र विभागप्रदर्शनायोदाहरणं प्रदश्यते
हम सर्वत्र ही ज्ञान और कर्मके समुच्चयका खण्डन नहीं करते, क्योंकि जहाँपर उनका अङ्गाङ्गी भाव है, वहाँ हमारे पिताजी भी उनके समुच्चयका वारण नहीं कर सकते ? किस जगहपर ज्ञान और कर्मका अङ्गाझी भाव है ? इसका निरूपण करने के लिए उदाहरण दिखलाते हैं
स्थाणुं चोरधियाऽऽलाय भीतो यद्वत्पलायते ।
बुद्धयादिभिस्तथाऽऽत्मानं भ्रान्तोऽध्यारोप्य चेष्टते ॥६॥ जैसे मनुष्य स्थाणुको-वृक्षके दूँठको-चोर समझकर भयसे भागने लगता है । वैसे ही भ्रान्त पुरुष आत्माको देहेन्द्रियरूप समझकर कर्म करता है। [ऐसे स्थलोंमें ज्ञान ( देहादिमें आत्मज्ञान होनेसे ) कर्मोंमें प्रवृत्तिका निमित्त होनेके कारण कर्मका अङ्ग है ] ॥ ६० ॥
एवं यत्र यत्र ज्ञानकर्मणोः प्रयोज्यप्रयोजकमावस्तत्र तत्र सर्वत्राऽयं न्यायः । यत्र तु न समकालं नाऽपि क्रमेणोपद्यते समुच्चयः स विषय उच्यते।
इस प्रकार जहाँ जहाँ ज्ञान और कर्मका अङ्गाङ्गी भाव है वहाँ सर्वत्र यही न्याय