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भाषानुवादसहिता
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कर्मका प्रयोजन अणुमात्र भी मुक्ति में सम्भावित नहीं है और जो मुक्ति में सम्भावित है 'स्वरूपमें स्थित होना' वह कर्म की अपेक्षा नहीं रखता। इसलिए यह कहा जाता है - उत्पाद्यमाण्यं संस्कार्यं विकार्य च क्रियाफलम् ।
नैवं मुक्तिर्यतस्तस्मात्कर्म तस्या न साधनम् ॥ ५३ ॥
मुक्ति उत्पाद्य, प्राप्य, संस्कार्य और विकार्य, ऐसे चार प्रकारके कर्म-फलों में से कोई भी नहीं हो सकती । इसलिए कर्म उसका साधन नहीं हो सकता ॥ ५३ ॥
एवं तावत् केवलं कर्म साचादविद्यापनुत्तये न पर्याप्तमिति प्रपञ्चितम् मुक्तौ च मुमुक्षुज्ञानतद्विपयस्वाभाव्यानुरोधेन सर्वप्रकारस्यापि कर्मणोऽसंभव उक्तो 'हितं सम्प्रप्सतामि' त्यादिना । यादृशवाऽऽरादुपकारकत्वेन ज्ञानोत्पत्तौ कर्मणां समुचयः संभवति तथा प्रतिपादितम् | अविघोच्छित्तौ तु लब्धात्मस्वभावस्याऽऽत्मज्ञानस्यैवाऽसाधारणं साधकतमत्वं नाsन्यस्य प्रधानभूतस्य गुणभूतस्य वेत्येतदधुनोच्यते ।
इस प्रकार केवल कर्म साक्षात् सम्बन्ध से विद्याका नाश करनेके लिए समर्थ नहीं है, यह विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया । नित्य कर्म-फल से विरक्त होना मुमुक्षुका स्वभाव है, प्रमाण एवं वस्तुके परतन्त्र होने के कारण अविद्याको निवृत्त करना ज्ञानका स्वभाव है और कूटस्थ होनेके कारण साध्य न होना यह ज्ञानके विषय - आत्माका स्वभाव है । इन कारणोंसे मुक्ति में किसी प्रकारके भी कर्मका कारण ( साधन) होना असंभव है, यह “हितं सम्प्रेप्सताम्” (२८) इत्यादि श्लोकांसे प्रतिपादन किया गया । और परम्परासम्बन्धसे ज्ञानोत्पत्ति में उपकारक होनेके कारण कर्मका ज्ञानके साथ समुच्चय जिस प्रकार हो सकता है, वह भी प्रतिपादन कहा किया गया । परन्तु श्रविद्याकी निवृत्ति करने में तो अपने स्वरूपको प्राप्त हुया दृढ़ ग्रात्मज्ञान ही प्रधान कारण है, उसका कोई दूसरा प्रधान या गौण भावसे सहायक नहीं है, इस बातका निरूपण अत्र आगे किया जाता है। . तत्र ज्ञानं गुणभूतं तावदहेतुरित्येतदाह
उसमें से प्रथम मुक्ति-प्राप्ति में ज्ञान गौणतावसे और कर्म प्रधानभाव से साधन है, इस पक्ष का निरास करते हुए कहते हैं---
सन्निपत्य न च ज्ञानं कर्माज्ञानं निरस्यति ।
साध्यसाधनभावत्वादेककालोनवस्थितेः ॥ ५४ ॥
ज्ञान कर्मका अङ्ग होकर विद्याकी निवृत्ति नहीं कर सकता, क्योंकि कर्म अन्तःकरण शुद्धि द्वारा ज्ञानका साधन है, इसलिए : साध्यभूत ज्ञानके साथ उसकी एककाल में स्थिति न होनेसे ज्ञान और कर्मका अङ्गाङ्गी भाव हो नहीं सकता || ५४ ॥
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