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नैष्कर्म्यसिद्धिः यथोक्तेऽर्थे सर्वज्ञवचनं प्रमाणम् । कहे हुए विषयमें सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण के वचनको प्रमाणरूपसे उद्धृत करते हैं
आरुरुक्षोमनेयोगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः करणमुच्यते ॥ ५१ ॥
जो तत्त्वज्ञान के साधन ध्यानयोगको प्राप्त करनेकी इच्छा तो करता है, पर उसका अनुष्ठान करने में समर्थ नहीं है ऐसे साधकके लिए कर्म साधन है और योगानुष्ठानमें समर्थ उसी योगीके लिए शम (संन्यास योग) अर्थात् कमेंका त्याग ही साधन है ॥५१॥
नित्यनैमित्तिककर्मानुष्ठानाद्धर्मोत्पत्तिः, धर्मोत्पत्तेः पापहानिः ततश्चित्तशुद्धिःततः संसारयाथात्म्यावबोधः, ततो वैराग्यम् , ततो मुमुक्षुत्वम्, ततस्तदुपायपयेषणम्, ततः सर्वकर्मतत्साधनसंन्यासः, ततो योगाभ्यासः, ततचित्तस्य प्रत्यप्रवणता, ततस्तत्वमस्यादिवाक्यार्थपरिज्ञानम् ,ततोऽविद्योच्छेदः, ततश्च स्वात्मन्येवाऽवस्थानम् । ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति', 'विमुक्तश्च विमुच्यते" इति ।
पारम्पर्येण कमैवं स्यादविद्यानिवृत्तये ।
ज्ञानवन्नाविरोधित्वात्कर्माऽविद्यां निरस्यति ॥५२॥ नित्य और नैमित्तिक कर्मों के अनुष्ठानसे धर्मोत्पत्ति, धर्मात्पत्ति से पापोंका नाश, पापनाशसे चित्तकी शुद्धि, चित्तशुद्धिसे संसारके वास्तविकरूपका बोध, संसारके यथार्थ स्वरूपके ज्ञानसे संसारसे वैराग्य, वैराग्यसे मुक्ति प्राप्त करनेकी (संसार-बन्धनोंसे छूटनेकी) इच्छा, मुक्तिप्राप्ति की इच्छासे उसके उपायका अन्वेषण, उससे सम्पूर्ण कर्म और उनके साधनोंका परित्याग, तदनन्तर योगाभ्यास, योगाभ्याससे चित्तकी प्रत्यक्प्रवणता अर्थात् चित्तका यात्माकी ही अोर लगना, उससे 'तत्त्वमसि' ( वही तू है ) इत्यादि वाक्यांके अर्थभूत शुद्धब्रह्मका साक्षात्कार, साक्षात्कारसे अविद्याकी निवृत्ति और और अविद्याकी निवृत्तिसे केवल अात्मस्वरूपसे परमात्मामें स्थिति होती है। जैसा कि अति प्रतिपादन करती है"ज्ञान होनेके पूर्व भी ब्रह्मरूपमें स्थित अात्मा ब्रह्म ही को प्राप्त हो जाता है ।" "और मुक्त हुआ ही ज्ञान होनेपर मुक्त हो जाता है।" इस प्रकार कर्म परम्परासे अविद्याके नाशमें कारण हो सकता है। परन्तु ज्ञानके समान अविद्याका विरोधी न होनेके कारण अज्ञानकी निवृत्तिका साक्षात्कारण वह नहीं हो सकता ॥ ५२ ॥
न च कर्मणः कार्यमण्वपि मुक्तौ सम्भाव्यते, नापि मुक्तौ यत्सम्भवति तत्कर्माऽपेक्षते । तदुच्यते