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भाषानुवादसहिता . कल्पं बाह्यविषयहेतुकेन च रागद्वेषात्मकेनाऽतिग्रहबडिशेनाऽनाकृष्यमाणं निधूताशेषकल्मषं प्रत्यङ्मात्रप्रवणं चित्तदर्पणमवतिष्ठतेऽत इदमभिधीयत
क्योंकि रजोगुण और तमोगुणके मलसे मलिन हुअा चित्त ही, काँटेमें लगे आटेसे आकृष्ट हुई मछलीके समान, कामनाओंसे खिंचकर शब्द, स्पर्शादि विषयरूप हिंसाके स्थानों में फेंका जाता है । इसलिए जब नित्य तथा नैमित्तिक कर्मों के अनुष्ठानरूप मार्जनसे रजोगुण और तमोगुणके मलसे रहित हो जानेके कारण प्रसन्न, प्रशान्त एवं धोई हुई स्फटिक शिलाके समान अतीव स्वच्छ, बाह्य विषयोंमें उत्पन्न हुए रागद्वेषरूप महान् बन्धनकारी बडिशां (बंसी) द्वारा नहीं खींचा जाता हुअा तथा समस्त पाप से रहित और केवल एक आत्माकी अोर ही झुका हुआ चित्तरूप दर्पण स्थिर हो जाता है; तब यह कहा जाता है कि
व्युत्थिताशेष कामेभ्यो यदा धीरवतिष्ठते ।
तदैव प्रत्यगात्मानं स्वयमेवाऽऽविविक्षति ॥ ४८ ।। जिस समय बुद्धि समस्त कामनाओंसे हटकर शुद्ध और स्थिर हो जाती है, उस समय वह अपने आप ही आत्माकी ओर प्रविष्ट होने लगती है ॥ ४८ ॥
अतः परमवसिताधिकाराणि कर्माणि प्रत्यक्प्रवणतासूनौ कृतसम्पत्तिकानि चरितार्थानि सन्ति
बुद्धि शुद्ध होने के अनन्तर कर्मोका सब कृत्य समाप्त हो जाता है। इसलिए वे बुद्धि को आत्माकी ओर आकर्षण करके (झुका करके ) अर्थात् उन्हें अपने सब कार्य सौंपकर कृतार्थ हो जाते हैं
प्रत्यक्प्रवणतां बुद्धः कर्माण्युत्पाद्य शुद्धितः ।
कृतार्थान्यस्तमायान्ति प्रावृडन्ते घना इव ॥ ४९ ।।
(इस प्रकार) कर्म बुद्धिको शुद्ध करके उसे आत्माकी ओर लगाके कृतार्थ होकर वर्षा ऋतुके अन्तमें मेघोंके समान अस्त हो जाते हैं ॥ ४६ ॥
यतो नित्यकर्मानुष्ठानस्यैष महिमातस्मान्मुमुक्षुभिः कार्यमात्मज्ञानाभिलाषिभिः ।
नित्यं नैमित्तिकं कर्म सदैवाऽऽत्मविशुद्धये ॥ ५० ॥
क्योंकि यह बुद्धिका शुद्ध होना आदि सब नित्य कर्मके अनुष्ठानकी ही महिमा है, इसलिए अात्मज्ञानके अभिलाषी मुमुक्षुओंको अपने अन्तःकरएकी शुद्धिके लिए नित्य और नैमित्तिक कर्माका अनुष्ठान सर्वदा ही करना चाहिए ॥ ५० ॥