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नैष्कर्म्यसिद्धिः सामान्याच विशेषाच स्वमहिम्नैव यो भवेत् ।
व्युत्थायाऽप्यविकारी स्यात्कुम्भाकाशादिवत्तु नः ॥१७॥
यहाँ तक के ग्रन्थसे परिणामी अहंकारसे कूटस्थ आत्मा कैसे लक्षित होता है, इस बात को दिखलाया, अब इन दोनों का लक्षण कहते हैं
मैं घटको जानता हूँ, पटको जानता हूँ, सुखी हूँ, दुःखी हूँ, इस प्रकार विशेषका आश्रय करके जिसका स्वरूप प्रतीत होता है अर्थात् बाल्य यौवनादि अवस्थाका भेद जैसा है, वैसा अहङ्कारका भी अवस्थाभेद है। तो भी जो मैं पहले सुखी था, वही मैं इस समय दुःखी हूँ, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञाके बलसे एकसा प्रतीत होता है, देहकी भाँति वह परिणामी है ॥ १६॥
जो सामान्य और विशेषको आश्रय न कर उनसे पृथकरूप होकर स्वप्रकाश रूपसे ही प्रतीत होता है, वह कूटस्थ कहलाता है। जैसे घटाकाश, मटाकाश इत्यादि प्रकारसे उपाधियुक्त रूपसे भासमान होनेपर भी श्राकाश घयादि उपाधिगत विकारोंसे विकृत नहीं होता, किन्तु इनसे पृथकरूपसे रहकर कूटस्थ ही रहता है। वैसे ही आत्मा विकारको प्राप्त न होकर कूटस्थ ही रहता है ॥ १७॥
आत्मनो बुद्धेश्च बोधप्रत्यगात्मत्वमभिहितं तयोरसाधारणलक्षणाभिधानार्थमाह
बुद्धेर्यत्प्रत्यगात्मत्वं तत्स्यादेहाधुपाश्रयात् ।
आत्मनस्तु स्वरूपं तन्नभसः सुपिता यथा ॥ १८ ॥ बोद्धृत्वं तद्वदेवाऽस्याः प्रत्ययोत्पत्तिहेतुतः।
आत्मनस्तु स्वरूपं तत्तिष्ठन्तीव महीभृतः ।। १९ ।।
इस प्रकार लक्ष्य लक्षणरूप आत्मा और बुद्धि, इन दोनोंकी बोधरूपता तथा प्रत्यगात्मरूपताका वर्णन किया। अब इन दोनों रूपोंका असाधारण लक्षण कहते हैं
बुद्धिमें जो प्रत्यकरूपत्व प्रतीत होता है वह देहादिकी अपेक्षासे प्रतीत होता है । आत्माकी जो प्रत्यक्रूपता है वह किसी अन्य की अपेक्षासे नहीं है किन्तु वह आत्माका स्वाभाविक स्वरूप है जैसे आकाराका पोलापन स्वाभाविक है ॥ १८॥
___ ऐसे ही बुद्धि में जो बोद्धृत्व है, वह भी तत्तद्विषयाकारसे परिणत बुद्धिवृत्तिरूप बोधकर्तृत्वरूप है । क्योंकि जब बुद्धिका विषयाकारसे परिणाम होकर वृचिमें चैतन्यका प्रतिबिम्ब पड़ता है, उसी समय बुद्धि में बोद्धृत्व व्यवहार होता है नहीं तो नहीं। किन्तु आत्माका बोद्धृत्व वैसा नहीं है, किन्तु स्वाभाविक है। जैसे चञ्चल पदार्थों में गति निवृत्ति जब होती है तब ये खड़े हैं, इस प्रकार 'स्था' धातु का प्रयोग होता है।