________________
नैष्कर्म्यसिद्धिः
कीर्ति, धन या सत्कार प्राप्ति के लिए हम इस ग्रन्थका निर्माण नहीं करते । किन्तु जैसे सुवर्णकार सुवर्णकी परीक्षा के लिए उसे कसौटीपर घिसता है, वैसे ही श्रीगुरु कृपासे हमें जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, उसमें अभी कुछ भ्रान्तिरूप मलका सम्पर्क तो नहीं है ? इसकी परीक्षा के लिए ब्रह्मवेचायों के सामने अपने ज्ञानको उपस्थित करनेके निमित्त यह प्रयत्न किया जाता है । क्योंकि वे लोग ज्ञानरूप स्वर्णकी परीक्षा करनेमें कमौटी के समान है ॥६॥ अनर्थाऽनर्थहेतुपुरुषार्थतद्धेतुप्रकरणार्थं संग्रहज्ञापनायोपन्यासः ---
1
* अनर्थ, अनर्थका कारण, पुरुषार्थ और पुरुषार्थका कारण, इन चार विषयका वर्णन इस ग्रन्थ में किया जायगा । इस बातको सूचित करने के लिए संक्षेपसे उन विषयोंका स्वरूप वर्णन करते हैं-
ऐकात्म्याsप्रतिपत्तिर्या स्वात्मानुभवसंश्रया । साऽविद्या संसृतेर्बीजं तन्नाशो मुक्तिरात्मनः ॥ ७ ॥ 'आत्मा एक अद्वितीय है' ऐसा न जानकर 'यह नाना एवं सुख दुःखादि द्वन्द्वांस युक्त. है' ऐसा विपरीत समझना ही जिसका स्वरूप है और ज्ञानस्वरूप ग्रात्मा ही केवल जिसका श्रय है, वही विद्या समस्त संसारकी जननी है उसीका नाश श्रात्माकी मुक्ति है || || पुरुषार्थहेतोरवशिष्टत्वात्तदभिव्याहारः
पूर्वोक्त चार विषयों में तीनका कथन हो चुका अवशिष्ट पुरुषार्थ हेतु तत्त्वज्ञानका वर्णन करते हैं—
वेदावसान वाक्योत्थसम्यग्ज्ञानाशुशुक्षणिः |
दन्दहीत्यात्मनो मोहं न कर्माऽप्रतिकूलतः ॥ ८ ॥
वेदान्तवाक्यांस उत्पन्न हुआ तत्त्वज्ञानरूप अनि ग्रात्मा के श्राश्रित ज्ञानको एकदम भस्म कर देता है । परन्तु विरोधी न होनेके कारण कर्म उसका ( अज्ञानका ) नाश नहीं कर सकता ॥ ८ ॥
प्रतिज्ञातार्थसंशुद्धयर्थं पूर्वपक्षोक्तिः । तत्र ज्ञानमभ्युपगम्य तावदु
पन्यास:
* अनर्थ संसार, अनर्थका कारण - श्रविद्या, पुरुषार्थ - विद्याका नाशरूप मोक्ष, पुरुषार्थका कारण - तत्त्वज्ञान |
१ 'मुक्तिस्तन्नाश श्रात्मनः भी पाठ है ।
२ ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ।
३ दन्दहीति = समूलघातं हन्ति, ऐकान्तिकात्यन्तिकोच्छेदं करोतीति यावत् । ४ 'विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः, इस न्यायसे ज्ञान ही मुक्तिका साधन है, कर्म नहीं, इस प्रतिज्ञात विपयकी दृढ़ता के लिए पूर्वपक्ष किया गया है ।