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भाषानुवादसहिता
( पूर्व श्लोक में प्रतिज्ञा की गई कि ज्ञान ही मुक्तिका साधन है, कर्म नहीं ) । अब इस प्रतिज्ञात अर्थकी दृढ़ता के लिए पूर्वपक्ष किया जाता है। यहां पर प्रथम कर्मवादी लोग ब्रह्मज्ञानको स्वीकार करके भी मुक्तिप्राप्ति में उसे अनावश्यक कहते हुए कर्म ही को मुक्तिका साधन सिद्ध करते हैं
मुक्तेः क्रियाभिः सिद्धत्वाज्ज्ञानं तत्र करोति किम् ।
कथं चेच्छृणु तत्सर्वं प्रणिधाय मनो यथा ॥ ९ ॥
केवल कर्मों से ही मोक्ष सिद्ध हो सकता है, तो फिर मोक्षकी प्राप्तिमें ज्ञानकी क्या आवश्यकता है ? यदि अनित्य कर्म मोक्षकी सिद्धि कैसे कर सकता है ? ऐसी शङ्का हो तो उस प्रकारको सावधान होकर एकाग्रचित्तसे सुनिए ? ॥ ६ ॥
कुर्वतः क्रियाः कोम्या निषिद्धास्त्यजतस्तथा । नित्यं नैमित्तिकं कर्म विधिवच्चानुतिष्ठतः ॥ १० ॥
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जो पुरुष काम्य कर्मों को न करते, निषिद्ध कर्मों को सर्वथा त्यागते नित्य नैमित्तिक कर्मोंका विधिपूर्वक अनुष्ठान करता है, वह ( स्वरूप स्थिति के प्रतिबन्धक सम्पूर्ण कर्मों का नाश होने के कारण ) स्वस्वरूप में स्थितिरूप मोक्षको ( ज्ञानकी सहायता के बिना ही ) प्राप्त होता है ।
किमतो भवति ?
शङ्का - इस प्रकार काम्य कर्मों के न करने तथा निषिद्ध कर्मोंका त्याग करनेसे क्या होता है ?
काम्यकर्मफलं तस्मादवादीमं न ढौकते ।
निषिद्धस्य निरस्तत्वान्नारकीं नैत्यधोगतिम् ॥ ११ ॥
उत्तर - काम्य कर्मोके न करनेसे देवादिभाव और निषिद्ध कर्मके त्याग से नरक सम्बन्धिनी अधोगति उस पुरुषको नहीं प्राप्त होती ॥ ११ ॥
देहारम्भकयोa धर्माधर्म्मयोर्ज्ञानिना सह कर्मिणः समानौ चोद्यपरिहारौ ।
जिन धर्माधर्मोने वर्तमान देहको उत्पन्न किया है, उनके विषय में तो ज्ञानवादियों के साथ कर्मवादियोंका शङ्का समाधान एक समान ही है । क्योंकि—
वर्तमानमिदं याभ्यां शरीरं सुखदुःखदम् ।
आरब्धं पुण्यपापाभ्यां भोगादेव तयोः क्षयः ।। १२ ॥
१ मुक्तिर्भवतीति शेषः ।