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॥ श्रीगुरुः शरणम् ॥
नैष्कर्म्यसिद्ध चतुर्थोऽध्यायः प्रारभ्यते
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पूर्वाध्यायेषु यद् वस्तु विस्तरेणोदितं स्फुटम् । सङ्क्षेपतोऽधुना वक्ष्ये तदेव सुखवित्तये ॥१॥
प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय अध्यायोंमें जिस वस्तुका विस्तार पूर्वक वर्णन किया, उसीको सुखपूर्वक – अनायास से - जानने के लिए अब संक्षेपसे इस (चतुर्थ) श्रध्याय में स्पष्ट वर्णन करता हूँ ॥ १ ॥
सङ्क्षेपविस्तराभ्यां हि मन्दोत्तमधियां नृणाम् 1 वस्तूच्यमानमेत्यन्तःकरणं तेन भएयते ॥ २ ॥
( कही हुई बातों को फिर से क्यों कहते हो, ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिए ।) क्योंकि संक्षेप और विस्तार, दोनों तरहसे वस्तुतस्त्रका निरूपण करनेसे मन्द, मध्यम, उत्तम - सभी प्रकार के लोगोंके अन्तःकरण में वह विषय स्थिर हो जाता है ॥ २ ॥ आत्मानात्मा च लोकेऽस्मिन् प्रत्यक्षादिप्रमाणतः । सिद्धस्तयोरनात्मा तु सर्वत्रैवात्मपूर्वकः ॥ ३ ॥
इस जगत् में आत्मा और अनात्मा ये दोनों प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सिद्ध हैं । परन्तु उनमें अनात्मा सर्वकाल में आत्मासे ही सिद्ध है । क्योंकि द्रष्टा के बिना दृश्यकी सिद्धि नहीं होती ॥ ३ ॥
अनात्मत्वं स्वतः सिद्ध' देहाद्भिन्नस्य वस्तुनः । ज्ञातुरप्यात्मता तद्द्वन्मध्ये संशयदर्शनम् ॥ ४ ॥
देहसे भिन्न घटादि दृश्य तो अनात्मरूपसे और ज्ञाता श्रात्मरूपसे स्वतः हो सिद्ध हैं । किन्तु घटादि विषय और प्रत्यगात्मा, इनके मध्य में वर्तमान शरीर, इन्द्रियादिमें कौनसा आत्मा है, ऐसा वादियोंके विवादसे संशय होता है ॥ ४ ॥ असाधारणांस्तयोर्धर्मान् ज्ञात्वा धूमाविद् बुधः ।
अनात्मनोऽथ बुद्धयन्तान् जानीयादनुमानतः ॥ ५ ॥
श्रात्मा के असाधारण धर्म द्रष्टृस्वादि और अनास्माके दृश्यत्व, जडत्वादि धर्मों
को पृथक्-पृथक् जान कर पण्डितको - जैसे धूमको देख कर अमिका निर्णय होता है, वैसे ही - देहसे लेकर बुद्धिपर्यन्त पदार्थोंका अनात्मत्व अनुमानसे निश्चित कर लेना चाहिए ॥ ५ ॥