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मावानुवादसहिता
इदमित्येव बाह्येऽर्थे ह्यहमित्येव बोद्धरि ।
द्वयं दृष्टं यतो देहे तेनाऽयं मुह्यते जनः ॥ ६ ॥
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बटादि बाह्य विषयोंमें ‘इदम्' ऐसी बुद्धि होती है । ज्ञाताका ज्ञान 'अहम्' (मैं) इस प्रकारसे होता है | शरीरमें - 'मेरा यह शरीर है' 'मैं मनुष्य हूँ' इस तरहसे दोनों प्रकारका ज्ञान उपलब्ध हो रहा है । इसी कारण लोगोंको संशय होता है ॥ ६ ॥ केन पुनर्न्यायेनात्मानात्मनोरश्वमहिषयोरिव विभागः क्रियत इति १ उच्यते
न्यायः पुरोदितोऽस्माभिरात्मानात्मविभागकृत् । तेनेदमर्थमुत्सार्य ह्यहमित्यत्र यो भवेत् ॥ ७ ॥
किन युक्तियों से अश्व और महिषके तुल्य आत्मा और अनात्माका विवेक सिद्ध होता है, ऐसी आशङ्का होनेपर कहते हैं
आरमा और अनात्मा विवेकको दिखलानेवाली युक्तियाँ पूर्वाध्यायोंमें कही गई हैं । उन्ही अनुशीलनसे सन्दिग्ध श्रहङ्कार में जो 'इदम्' अंश है, उसको दृश्यत्वादि श्रनात्मा समझकर जो अवशिष्ट अंश है - ॥ ७ ॥
हेतु
विद्यात्तत्त्वमसीत्यस्माद्भावाभावदर्श
अनन्तरमबाह्यार्थ
सदा । प्रत्यक्स्थं मुनिरञ्जसा ॥ ८ ॥
उसीको मननशील पुरुष अनायास से 'तत्त्वमसि' वाक्यसे वृत्तियों के भावाभावका प्रकाशक, बाह्याभ्यन्तरशून्य, सर्वान्तर, साक्षिस्वरूप जाने ॥ ८ ॥
उच्यतां तर्हि कया तु परिपाट्या वाक्यार्थ वेतीति ? उच्यते । अन्वयव्यतिरेकाभ्याम् |
१
त्यक्तकृत्स्त्रेदमर्थत्वात् त्यक्तोऽहमिति मन्यते ।
नाsaगच्छाम्यहं यस्मान्निजात्मानमनात्मनः ॥ ९ ॥
तब कहिए किस क्रमसे वाक्यार्थका ज्ञान होता है ? कहते हैं - प्रथम श्रन्वय व्यतिरेक द्वारा सम्पूर्ण इदमर्थको अनात्मा समझ कर त्याग देनेके कारण मुमुक्षु . आत्माका भी परित्याग हो गया है, ऐसा मान लेता है । क्योंकि अनात्मा से पृथक् करके अपने श्रात्माको मैं नहीं जानता हूँ, अतएव मैं नष्ट हो गया हूँ, ऐसा मान लेता है ॥६॥ - अथ शरीरादिबुद्धिपर्यन्तः स सर्वोऽनात्मैवेति प्रमाणाद विनिचित्य किमिति बुभुत्सातो नोपरमते । शृणु
१ - प्रत्यञ्चं, ऐसा पाठ भी है।