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नैष्कर्म्यसिद्धिः अनुच्छिन्नबुभुत्सश्च प्रत्यग्घेतोरनात्मनः ।
दोलायमानचित्तोऽयं मुह्यते भौतवनरः ॥ १० ॥ . शङ्का-शरीरसे लेकर बुद्धिपर्यन्त सब पदार्थ अनास्मा हैं, ऐसा प्रमाणसे निश्चित होनेके बाद भी मुमुक्षु क्यों जिज्ञासासे विरत नहीं होता ? समाधान-सुनिए
अहङ्कारादिमें भी प्रत्यक्ष प्रतीत होता है, इसलिए यह पुरुष भ्रान्तपुरुषकी ( भूतसे उपगृहीत पुरुषकी ) भाँति सन्दिग्ध चित्त होकर जिज्ञासु बना रहता है ॥ १० ॥
अलुप्त विज्ञानात्मन आत्मत्वादेव नित्यसान्निध्याद् बुभुत्सुः किमिति न प्रतिपद्यत इति ? यस्मात्
यैरद्राक्षीत्पुरात्मानं यमनात्मेति वीक्षते । दृष्टेन॒ष्टारमात्मानं तैः प्रसिद्धः प्रमित्सति ॥ ११ ॥
शङ्का--आत्मा नित्य, स्वयम्प्रकाश है और स्वस्वरूप होनेके कारण वह नित्य ही सन्निहित भी है। फिर जिज्ञासु पुरुषको उसका निश्चयात्मक ज्ञान होकर जिज्ञासाकी शान्ति क्यों नहीं होती ?
समाधान-इसलिए कि ज्ञान होनेके पूर्व जिन चक्षु आदि इन्द्रियोंके द्वारा देहादिको आत्मरूपसे देखता था, जिनको कि इस समय अनात्मरूपसे देखता है; उन्हीं प्रसिद्ध करणोंसे ( इन्द्रियों से ) वृत्तिके साक्षीको भी जानना चाहता है। इसी कारण स्वस्वरूप होनेपर भी आत्माको नहीं जानता ॥ ११ ॥
कस्मात्पुनर्हेतोः पराचीनाभिः शब्दाद्यवलोडिनीभिर्बुद्धिभिरात्मानमनात्मवन्न वीक्षत इति ? उच्यते--
चक्षुने वीक्षते 'शब्दमतदात्मत्वकारणात् । यथैवं भौतिकी दृष्टिात्मानं परिपश्यति ॥ १२ ॥
शङ्का-शब्दादिविषयोंको प्रकाशित करनेवाली बुद्धियोंके द्वारा शरीरादिकी तरह आत्माको यह पुरुषको क्यों नहीं जान लेता ?
समाधान-कहते हैं।
जैसे चतु शब्दगुणक द्रव्य ( अाकाश) से उत्पन्न न होनेके कारण शब्दको नहीं प्रकाशित कर सकता है ? वैसे ही भौतिक अन्तःकरणसे उत्पन्न हुआ वृत्तिरूप ज्ञान निस्य आत्माको नहीं प्रकाशित कर सकता ॥ १२ ॥
प्रत्यक्षादिप्रमाणस्वाभाव्यानुरोधेन तावत्तददर्शनकारणमुक्तम् । अथ प्रमेयस्वाभाव्यानुरोधेन प्रतिषेध उच्यते-- .
१-शब्दाद्यवलेहिनीभिः, ऐसा भी पाठ है।