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भाषानुवादसहिता उत्पन्न हो । इस ज्ञानसे ही कैवल्य होता है ।" इस मतका निराकरण करनेके लिए यह कहते हैं
सामानाधिकरण्यादेर्घटेतरखयोरिव ।
व्यावृत्तेः स्यादवाक्यार्थः साक्षान्नस्तत्त्वमर्थयोः ॥ ९ ॥
यद्यपि यह नील कमल है, इत्यादि प्रयोगोंमें सामानाधिकरण्य और विशेषणविशेष्य भावसे संसर्गात्मक (नील और कमलका) नीलरूपवाला कमल है, ऐसा ज्ञान होता है । तथापि घटाकाश महाकाश है इत्यादि लौकिक वाक्योंमें घटविशिष्ट आकाश
और महाकाश इन दोनोंका परस्पर जो विरोध है उसको दूर करने के लिए लक्षणा द्वारा घटाकाशका परिच्छिन्नत्व और महाकाशका महत्त्वरूप धर्म हटाकर केवल आकाशस्वरूप मात्रका ही बोध जैसे उत्पन्न होता हुआ दीख पढ़ता है वैसे ही 'तत्वमसि' इत्यादि वाक्योंमें भी पदोंका परस्पर सामानाधिकरण्य' और विशेषण-विशेष्यभाव होनेके कारण सम्बन्ध प्राप्त होनेपर भी विरोध परिहारके लिए त्वंपदार्थके दुःखित्वादि धर्म और तत्पदार्थ के परोक्षत्वादि धमोंकी लक्षणा द्वारा व्यावृत्ति (निराकरण) कर देनेसे अखण्ड एकरस ब्रह्म वस्तुका बोध होता है, इसलिए पूर्वोक्त निदिध्यासनको अपेक्षा नहीं है ॥६॥
विशेष्ययोः सामर्थ्योक्तिः
एक पदसे कहीं भी वाक्य नहीं बनता, इसलिए वाक्यकी आवश्यकता हो तो अनेक पदोंका ग्रहण करना चाहिये इसपर भी सभी पद एकही अर्थ के बोधक हों तो पौनरुत्त्य दोष होगा। अतएव अपुनरुक्तार्थक पदोंका अखण्ड अर्थमें पर्यवसान नहीं बनता ; इसलिए संसर्गको ही वाक्यार्थ मानना पड़ेगा। फिर-अखण्डार्थका बोध कैसे हो सकता है ? ऐसा आक्षेप यदि कोई करे, तो उसको दूर करने के लिए
निर्दुःखित्वं त्वमर्थस्य तदर्थेन विशेषणम् ।
प्रत्यक्ता च तदर्थस्य त्वंपदेनाऽस्य सन्निधेः ॥१०॥
तत्पदार्थ के साथ अभेद होनेसे त्वंपदार्थ के दुःखित्वादि धर्म दूर हो जाते हैं । ऐसे ही त्वंपदार्थ के सन्निधानसे तत्पदार्थके भी परोक्षत्वादि धर्म निवृत्त हो जाते हैं ॥१०॥
उक्तं सामानाधिकरण्यं विशेषणविशेष्यभावश्च संक्षेपतः । अथ लक्ष्यलक्षणव्याख्यानायाऽऽह
१ एक विभक्तिसे युक्त होकर एक अर्थका प्रतिपादन करना ।