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नैष्कर्म्यसिद्धिः सामान्याकारसे ज्ञान होनेपर भी अज्ञाताकारकी ज्ञातता नहीं हो सकती और अज्ञात श्राकारका अनुवाद भी नहीं हो सकता । इसलिए ज्ञानाऽभावसे विलक्षण भावरूप अज्ञानसे वह श्रावृत है, ऐसा कहना चाहिए। यदि सभी पदार्थ अज्ञात हों, तब प्रमाणके बिना अज्ञानकी निवृत्ति नहीं हो सकती। इसलिए आत्माके सदृश उनको भी प्रमेयत्व प्राप्त हुआ । इस आशङ्काकी निवृत्ति के लिए कहते हैं कि समस्त विशेषों में अनुगतरूपसे रहनेवाला सत्पदार्थ ही अज्ञात होनेके कारण प्रमेय है। न कि अन्य पदार्थ । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सत्य पदार्थ ही अज्ञात है ॥ ७ ॥
___ 'सन्नज्ञातो भवेत्ततः' इत्युक्तमधस्तनेन श्लोकेन । कौऽसौ सन्नज्ञातः ? इत्यपेक्षायां तत्स्वरूपप्रतिपादनायाऽऽह--
सद्प वस्तु ही अज्ञानका विषय है, यह पहले श्लोकसे कहा । वह सत्पदार्थ क्या है,जो कि अज्ञानका विषय होता है ? ऐसी ग्राशङ्का होनेपर उसका स्वरूप बतलाने के लिए कहते हैं
प्रमित्सायां य आभाति स्वयं मातृप्रमाणयोः । स्वमहिम्ना च यः सिद्धः सोऽज्ञातार्थोऽवसीयताम् ॥ ८ ॥ जिस समय किसी पदार्थको जाननेकी इच्छा होती है उस समय जो प्रमाता और प्रमाणोंके स्फुरणरूपसे स्फुरण समयमें प्रकाशमान होता है जब जाननेकी इच्छा नहीं होती उस समय उसके अभाव को प्रकाशित करता हुआ सुषुप्ति कालमें स्वरूपसे ही प्रकाशित होता है । वही सद्रप (आत्मा) अज्ञानका विषय है, ऐसा जानिए ॥८॥
___अत्र केचिदाहुः 'यत्किञ्चिदिह' वाक्यं लौकिक वैदिकं वा तत्सर्व संसर्गात्मकमेव वाक्यार्थ गमयति । अतस्तत्त्वमस्यादिवाक्येभ्यः संसर्गात्मकमहं ब्रह्मेति विज्ञाय तावन्निदिध्यासीत यावदवाक्यार्थात्मकः प्रत्यगात्मकः प्रत्यगात्मविषयोऽहं ब्रह्मेति समभिजायते तस्मादेवं विज्ञानात्कैवल्पमाप्नोति' इति । तन्निराकरणायेदमुच्यते-- .
___ इसपर कोई लोग ऐसा कहते हैं कि जगत् में लौकिक अथवा वैदिक जितने प्रकारके वाक्य होते हैं, वे सभी संसर्गरूप वाक्यार्थको ही बोधित करते हैं। इसलिए 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्योंसे संसर्ग रूपसे (अर्थात् दोनों पदार्थोके परस्पर भेदसे ) प्रथम ब्रह्मको जानकर पश्चात् तब तक निदिध्यासन करे जब तक वाक्यार्थरूप न होनेवाला अखण्ड प्रत्यगात्मरूप प्रत्यगात्माको ही विषय करनेवाला-'मैं ब्रह्मरूप हूँ' ऐसा ज्ञान
१ यावत्किञ्चित् । २ समभिज्ञायते।