________________
नैष्कर्म्यसिद्धिः अज्ञानसे उत्पन्न होनेके कारण कर्म उसकी (अज्ञानकी) निवृत्ति करनेमें समर्थ नहीं है और तत्त्वज्ञान मिथ्याऽज्ञानका विरोधी है, इसलिए वह, अन्धकारको सूर्यके समान, मिथ्या-अज्ञानको नष्ट करने में समर्थ है ॥ ३५ ॥
। नन्वात्मज्ञानमप्यविद्योपादानं न हि शास्त्रशिष्याचार्याधनुपादायाऽऽत्मज्ञानमात्मानं लभत इति ।
__ शङ्का-आत्मज्ञानका उपादान कारण भी तो अविद्या ही है। क्योंकि शास्त्र, शिष्य और गुरु इत्यादि अज्ञानसे माने हुए वस्तुओंके बिना तो वह उत्पन्न ही नहीं होता। (जब वह स्वयं अज्ञानसे उत्पन्न हुआ है तब वह भी अज्ञानको कैसे नष्ट कर सकता है ?)
नैष दोषः । यत आत्मज्ञानं हि स्वतःसिद्धपरमार्थात्मवस्तुमात्राऽऽश्रयादेवाविद्यातदुत्पन्नकारकग्रामप्रध्वंसि, स्वात्मोत्पत्तावेव शास्त्राद्यपेक्षते नोत्पन्नमविद्यानिवृत्तौ । कर्म पुनः स्वात्मोत्पत्तावुत्पन्नं च । नहि क्रिया कारकनिःस्पृहा कल्पकोटिव्यवहितफलदानाय स्वात्मानं बिभर्ति, साध्यमानमात्ररूपत्वात्तस्याः । न च क्रियाऽऽत्मज्ञानवत् स्वात्मप्रतिलम्भकाल एव स्वर्गादिफलेन कर्तारं सम्बध्नाति । आत्मज्ञानं पुनः पुरुषार्थसिद्धौ नोत्पद्यमानस्वरूपव्यतिरेकेणान्यद्रूपान्तरं । साधनान्तरं वापेक्षते । कुत एतद्यतः। .
उत्तर-यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि आत्मज्ञान स्वयंप्रकाश, वास्तवमें सत् रूप आत्मवस्तुको विषय करता हुआ उसीके बलसे अविद्या और उससे उत्पन्न हुई कारणसामग्रीको नष्ट करता है और केवल अपनी उत्पत्ति के लिए ही शास्त्रादिकी अपेक्षा करता है। उत्पन्न होनेपर अविद्याको नष्ट करने के लिए वह किसी दूसरेकी अपेक्षा नहीं करता। परन्तु कर्म तो अपनी उत्पत्तिके लिए और उत्पन्न होनेपर फल देनेके लिए भी अविद्याकी अपेक्षा करता है। कोई भी क्रिया अपने कारणकी (अविद्याका) अपेक्षा न रखती हुई करोड़ों कल्पोंके अनन्तर उत्पन्न होनेवाले फलको देनेके लिए अपने आत्माको-स्वरूपको-धारण नहीं कर सकती । क्योंकि क्रियाका स्वरूप सर्वदा ही परतन्त्र तथा साध्यमात्र ही है और वह आत्म-ज्ञानके समान उत्पन्न होते हो कर्ताको अपने द्वारा उत्पन्न होनेवाले स्वर्गादि फलोंसे संयुक्त नहीं करती; परन्तु आत्मज्ञान तो अज्ञाननिवृत्तिरूप मोक्षका सम्पादन करनेके लिए अपनी उत्पत्तिके अतिरिक्त अभ्यास या कर्म, किसीकी भी अपेक्षा नहीं करता।
[ शङ्का-द्वैतज्ञान अनादि कालसे चला आता है और उसके संस्कार भी अनादि