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भाषानुवादसहिता
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[ इस श्लोक में ग्रन्थकारने लोकप्रवृत्तिके चार भेद बतलाए हैं । १ ) जो वस्तु स्वयं ही प्राप्त है, अज्ञानवश उसकी प्राप्ति के लिए। जैसे कि भूले हुए कण्ठके हारकी प्राप्तिके लिए (२) जो वस्तु कदापि प्राप्त नहीं है, भ्रमवश उसको छोड़नेके लिए । जैसे कि भय के कारण अपनी छाया में कल्पित भूतकी निवृत्तिके लिए ( ३ ) जो वास्तवमें छोड़ने योग्य वस्तु है, उसके छोड़ने के लिए। जैसे कि पैर में लपटे हुए सर्प आदि को दूर करनेके लिए । और (४) जो यथार्थ में प्राप्त है उस वस्तुकी प्राप्ति के लिए। जैसे कि ग्रामादिकी प्राप्ति के लिए लोकमें प्रवृत्ति देखी जाती है । ] तत्रैतेषु चतुर्षु विषयेषु प्राप्तये परिहाराय च विभज्य न्यायः प्रदश्यते । अब इन चार विषयों में प्राप्ति और परिहार के लिए पृथक्-पृथक् युक्तिपूर्वक उपाय दिखलाया जाता है
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प्राप्तव्यपरिहार्येषु ज्ञात्वोपायान् श्रतेः पृथक् ।
कृत्वाऽथ प्राप्नुयात्प्राप्यं तथाऽनिष्टं जहात्यपि ॥ ३३ ॥
प्राप्त करने योग्य स्वर्गादि पदार्थो की प्राप्ति और त्यागने योग्य नरकादि पदार्थों के परिहार के लिए समर्थ तत् तत् उपयोंको शास्त्र द्वारा पृथक्-पृथक् जानकर ( अधिकारी ) पुरुष ( विधिपूर्वक अनुष्ठान करके उससे उत्पन्न हुए दृष्टसे ) इष्ट वस्तुकी प्राप्ति और निष्टका परित्याग करता है ॥ ३३ ॥
प्रधावशिष्टयोः स्वभावतः
वर्जितावाप्तयोबधाद्धानप्राप्ती न कर्मणा ।
मोहमात्रान्तरायत्वात् क्रियया ते न सिद्ध्यतः || ३४ ॥
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और बाँकी बचे हुए स्वाभाविक नित्यप्राप्त सुख और नित्यनिवृत्त दुःख, इन दोनों प्रकारके पदार्थोंकी प्राप्ति और निवृत्ति ज्ञानसे ही होती है । क्योंकि उनकी प्राप्ति और निवृत्ति में प्रतिबन्धक केवल अज्ञान हो है, इस कारण वे दोनों क्रिया द्वारा प्राप्त और निवृत्त नहीं हो सकते || ३४ ॥
कस्मात्पुनरात्मवस्तुयाथात्म्यावबोधमात्रादेवाभिलषितनिरतिशयसुखप्राप्ति- निःशेष- दुःखनिवृत्ती भवतः, न तु कर्मणेति ? उच्यते
किस कारण ऐसा कहा जाता है कि श्रात्मवस्तुके यथार्थज्ञानमात्रसे ही अभिलषित, निरतिशय ( तारतम्यरहित ) सुखकी प्राप्ति और निःशेष दुःखकी समूल निवृत्ति होती है, कर्म से नहीं ? इस शङ्काका समाधान करते हैं
कर्माज्ञानसमुत्थत्वान्नाऽलं
मोहापनुत्तये । सम्यग्ज्ञानं विरोध्यस्य तमिस्रस्यांऽशुमानिव ।। ३५ ।।