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tosर्म्यसिद्धिः
दिति मिथ्याज्ञानं तूपरशुक्तिकानवबोधोत्थ मिथ्याज्ञानवत्प्रवृत्तिनिमित्तमित्यवधारितम् । शास्त्र च न पदार्थशक्त्याधानकृदित्यस्यैवोत्तरत्र पञ्च आरभ्यते ।
इस प्रकार प्रत्यक्ष अनुमान तथा आगम इन तीन प्रमाणोंके बलसे ही आत्माकी न्यूनाधिक्यरहित सुखरूपता सिद्ध है और दुःखका सम्बन्ध -- अनुपलब्धि प्रमाणके विषय— भावके समान --न होने के कारण स्वभावसिद्ध दुःखसम्बन्धसे रहिन सुस्वरूप ग्रात्मवस्तु के ज्ञानसे 'मुझे सुख हो, दुःख न हो, ऐसा मिथ्याज्ञान ही मरुस्थल और शुक्तिमें उनके न जाननेसे उत्पन्न हुए ( जल और रजतरूप ) मिथ्याज्ञानके समानप्रवृत्ति और निवृत्तिका कारण है । शास्त्र किसी पदार्थ में नवीन शक्ति उत्पन्न नहीं करता किन्तु वह वस्तु की वर्तमान शक्तिको प्रकाशित करता है, यह निर्धारित किया गया । आगे इसी बात का विस्तार किया जाता है-
न परीप्सां जिहासां वा पुंसः शास्त्र' करोति हि । निजे एव तु ते यस्मात् पश्वादावपि दर्शनात् ॥
३० ॥
शास्त्र पुरुषोंकी किसी वस्तुमें इच्छा अथवा अरुचि उत्पन्न नहीं करता । किन्तु अपने स्वाभाविक अज्ञानवश ही वे हुआ करती हैं। क्योंकि शास्त्रीय ज्ञानके बिना भी पशु यादिमें इच्छा और द्वेष स्वभावतः देखे जाते हैं ॥ ३० ॥
उक्तं तावदनबुद्धवस्तुयाथात्म्य एव विधिप्रतिषेधशास्त्र ष्वधिक्रियत इति । अथाधुना विषयस्वभावानुरोधेन प्रवृत्त्यसंभवं वक्तुकाम आहजिस पुरुष को पने स्वरूपका ज्ञान है, वही विधि-निषेध शास्त्र में अधिकारी होता है, यह पहिले कहा जा चुका है । अत्र तत्त्वज्ञानके विषयभूत आत्मा के स्वरूपका विचार करने से भी कर्म में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है, यह बात कहते हैंलिप्सतेऽज्ञानतो लब्धं कण्ठे चामीकरं यथा ।
वर्जितं च स्वतो भ्रान्त्या छायायामात्मनो यथा ॥ ३१ ॥ भयान्मोहावनद्धात्मा रक्षःपरिजिहीर्षति । यच्चापरिहृतं वस्तु तथाऽलब्धं च लिप्सते ॥ ३२ ॥
यह मनुष्य अज्ञानके कारण जो पहले से ही प्राप्त है, उसको भूले हुए कराट के हारके समान, प्राप्त करनेकी तथा भय या मोहसे अभिभूतमनवाला होकर ( भ्रान्ति से ) अपनी छाया में कल्पित राक्षसके समान, जो वस्तु कदापि नहीं प्राप्त है, उसको दूर करनेकी चेष्टा करता है । और जो वास्तव में अपनेसे अपरिहृत - चोर, व्याघ्र आदि हैं एवं अलब्ध-वित्तादि पदार्थ हैं उनका परित्याग एवं ग्रहण करनेकी इच्छा करता है || ३१-३२||
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