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भाषानुवादसहिता
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प्रतिपादित कमका अनुष्ठान भी उन्होंने छोड़ दिया ? और यदि मृगतृष्णिका जलके अभिलाषी मनुष्यकी प्रवृत्तिके समान यथार्थ ( जैसी वस्तु है उसके विपरीत होनेवाला ) भ्रान्तिज्ञान ही इन सत्र कर्मोंमें प्रवृत्तिका कारण है, तब हम लोगों का सिद्धान्त यथार्थ - ज्ञानमूलक और कर्मवादी लोगों का सिद्धान्त मिथ्याज्ञानमूलक सिद्ध होनेसे हम लोगों की विजय और यापकी हानि होगी ?
हितं सम्प्रसतां मोहादहितं च जिहासताम् । 'उपायान्प्राप्तिहानार्थान् शास्त्रं भासयते ऽर्कवत् ।। २९ ।।
शास्त्र हितकी प्राप्ति और हितका परित्याग करनेकी इच्छा करनेवाले ज्ञानके वशवर्ती लोगों को उनकी इच्छा के अनुसार प्रकाशमय सूर्य के समान मुखप्राप्ति और दुःखनिवृत्तिके उपायों को बतलाता है || २६ ॥ [ यहाँ यह बात
विचारने योग्य है कि सुपुप्तिदशामें विषयसम्बन्धी सुखके न रहनेपर भी उठने पर मैं अब तक सुखसे सोया' इस प्रकार के अनुभवसे ग्रात्माकी सुखरूपता अनुभव से सिद्ध है । सब प्राणियों का सत्र वस्तुओं से अपनी आत्मा अधिक प्रेम देखा जाता है और अधिक प्रेम सुखरूपमें होता है । इस प्रकार अनुमान प्रमाण से भी श्रात्माकी सुखरूपता निश्चित है। श्रुतियों में भी ग्रात्माकी नित्य निरतिशयानन्दरूपताका बार बार वर्णन किया है और श्रुतियोंसे ही उस आत्माकी कूटस्थता, ग्रसङ्गता और साक्षिता भी सिद्ध है । अतएव स्वभावसे ही सब प्रकार के दुःखो का आत्माम भाव है । इसलिए पूर्ववर्णित निरतिशय सुखस्वरूप आत्माके ग्रज्ञान से ही सुखप्राप्ति और दुःखनिवृत्तिकी इच्छा हुआ करती है । न कि शास्त्र मनुष्यों को "तुम लोग कर्त्ता और भोक्ता हो, तुम्हारे लिए कुछ वस्तु ग्रहण करने योग्य और कुछ वस्तु त्यागने योग्य हैं । इसलिए तुम्हें ग्रहण करने योग्यों का ग्रहण और त्यागने योग्य वस्तु के परित्यागकी इच्छा करनी चाहिए। और तुम लोग वर्ण, आश्रम, दशा (अवस्था) दिसे युक्त हो ।" ऐसा उपदेश देकर इस प्रकार उनमें कर्तृत्वादि धर्मोका नवीनतया उत्पादन करता है। बल्कि अपने आप ही विपरीत का अपने ऊपर आरोप करके अपने आप ही ग्रहण या त्याग करने योग्य वस्तुत्रों के ग्रहण और त्यागके उपायों को हूँढनेवाले मनुष्यों के लिए तत् तत् फलों के साथ तत् तत् कर्मोंके श्रङ्गाङ्गी भावका प्रतिपादन करता है । उनकी प्रवृत्ति और निवृत्तिका विधान करनेमें शास्त्र प्रवृत्त नहीं है किन्तु उदासीन है । ]
एवं तावत्प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणावष्टम्भादेवाऽऽत्मनो निरतिशयसुख हिताव्यतिरेक सिद्धरहितस्य च षष्ठ गोचरवत् स्वत एवाऽनभिसम्ब न्धात् । एवं स्वाभाव्यात्मानवबोधमात्रादेव हितं मे स्यादहितं मे मा भू