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नैष्कर्म्यसिद्धिः इह चेदं परीक्ष्यते- किं यथा प्रतिपिद्धेषु यादृच्छिकेषु च कममु स्वाभाविकम्वाशयोत्थनिमित्तवशादेवेदं हितमिदमहितमिति [विशेपान] परिकल्प्य मृगतृष्णिकोदकपिपासुरिव लौकिकप्रमाण सिद्धान्येव च साधनान्युपादाय इष्टप्राप्तयेऽहितनिवृत्तये च स्वयमेव प्रवर्तते निवतते च तथैवाऽदृष्टार्थेषु काम्येपु निन्येषु च कर्मसु, किंवाऽन्यदेव तत्र प्रवृतिनिमित्तमिति ।
यहाँ इस बातका भी विचार किया जाता है कि जैस निषिद्ध और या (स्वेच्छामात्रसे होनेवाले भोजनादि ) कमि शास्त्रविधान के बिना ही स्वाभाविक मिथ्याज्ञानसे उत्पन्न हुए रागद्वेषादिरूप प्रवृत्ति और निवृत्ति के कारणों से या हितकर है और यह अहितकर है। ऐसी कल्पना करके----मृगतृप्याक जलको पान करनेकी अभिलाषा करनेवाले मनुष्यके समान-लौकिक प्रमाण से सिद्ध माधनों की ग्रहणकर सुख प्राप्ति और दुःखनिवृत्तिके लिए यह पुरुष अपने ग्राप ही प्रवृत्त और निवृत्त होता है। क्या वैसे ही अदृष्टार्थ काम्य और नित्य कर्मों में भी प्रवृत्त और निवा होता है ? या उनमें प्रवृत्तिका कारण कोई दूसरा ही है ? ।
किश्चाऽतो यद्येवम् ? शृणु, यदि तावत् यथावस्थित वस्तुसम्यग्ज्ञानं प्रमाणभूतमागमिकं लौकिक वा प्रवृत्तिनिमित्तमिति निश्चयों निवृत्तिशास्त्रं च नाभ्युपगम्यते तदा हताः कर्मत्यागिनो भ्रान्तिविज्ञानमात्रावष्टम्भात् अलौकिकप्रमाणोपात्तकर्मानुष्ठानत्यागित्वाच्च । अथ मृगतृष्णिकोदकपिपासुप्रवृत्तिनिमित्तवदयथावस्तुभ्रान्तिविज्ञानमेव सर्वप्रवृत्तिनिमित्तं तदा वर्द्धमहे वयं हताःस्थ यूयमिति ।
शङ्का-यदि काम्य और नित्यकर्मोंमें भी मिथ्याज्ञानसे उत्पन्न रागद्वेषादि ही प्रवृत्तिके निमित्त हो अथवा अन्य कोई हो, इससे अापका क्या प्रयोजन सिद्ध होगा?
समाधान- [पूर्वोक्त विचारसे हमारा यह प्रयोजन यह है कि-] यदि वस्तु के अनुरूप होने के कारण जो अत्यन्त प्रामाणिक है, ऐसा वैदिक अथवा लौकिक यथार्थज्ञान ही कोंमें प्रवृत्तिका कारण है, ऐसा आपका निश्चय है। और निवृत्तिशास्त्र अर्थात् कर्मसंन्यास-विधायक शास्त्रको--आजीवन अग्निहोत्रादिकाँका विधान करनेवाले 'यावजीवमनिहोत्रं जुहोति' (.जबतक आयु हो, तब तक अमिहोत्र करे) शास्त्रसे विरुद्ध होनेके कारण कर्मोंमें~-अनधिकारी अन्धे, लूले, लँगड़े आदि लोगोंके लिए मानकर उसे सर्वसाधारण के लिए न माना जाय, तब तो कर्मत्यागियों को बड़ी स्वार्थहानि हुई। क्यों कि उनका सिद्धान्त भ्रान्तिमूलक टहर गया और वैदिक प्रमाणांसे