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भावानुवादसहिता
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और ग्रापके (मीमांसकके) मतके अनुसार भी नित्यकर्मो का फल पापनाश और काम्य कर्मो का फल स्वर्गादि है । तब दोनों प्रकार के कर्म मोक्षके साधन कैसे हो सकते हैं ? ।। २६ ।।
प्रमाणासम्भवात्र
और मातृका साधन कर्म है, इस विषय में कोई प्रामण भी नहीं है । साध्यसाधनभावोऽयं वचनात्पारलौकिकः ।
नापं मोदं कर्म श्रुत्रात्कथञ्चन ॥। २७ ॥
साधनका परलोक में होनेवाले अर्थात् ग्ररूप फलके साथ ग्रङ्गाङ्गी भाव श्रुतिवचनों से सिद्ध होता है । परन्तु ऐसा कोई वचन श्रुति या स्मृति में हमने कहीं नहीं सुना, जिसमें कि कर्म मोका साधन है, ऐसा वर्णन किया हो ॥ २७ ॥ अभ्युपगताभ्युपमाच्च श्वश्रू निर्गच्छक्तिवत् भवतो निष्प्रयोजनः
प्रलापः ।
पूर्व में जो आपने निषिद्ध तथा काम्य कमका त्याग करना एवं नित्य कमांका निष्फल होना कहा है, इतना प्रपञ्च करके भी ग्रन्तमें आपको हमारा ही सिद्धान्त स्वीकार करना है । सुतराम् श्रापका यह सब कथन ऐसा ही निष्प्रयोजन प्रताप है जैसे कि कोई सास अपनी बहूकी किसी भिक्षुक से "यहाँ कुछ नहीं मिलेगा।" यह कहते सुनकर उससे कहे कि "तेरा घरमें क्या अधिकार हैं जो तू इस भिक्षुकसे कहती है कि यहाँ कुछ नहीं मिलेगा ? इस प्रकार का कलह कर पुनः उस भिक्षुकसे ( वह भी ) यही कहे कि " जाओ यहाँ कुछ नहीं मिलेगा ।" क्योंकि
निषिद्धकाम्ययोस्त्यागस्त्वयाऽपीष्टो मया यथा ।
नित्यस्याऽफलवत्त्वाच न मोक्षः कर्मसाधनः ॥ २८ ॥
निषिद्ध र काम्य कमका त्याग जैसे आपको इष्ट है, हम भी उसको वैसे ही मानते हैं, और नित्य कर्मों का फल कुछ नहीं है । इसलिए कर्म मोक्षका साधन नहीं हो
सकता ॥ २८ ॥
एवं तावन्मुक्तः क्रियाभिः सिद्धत्वादिति निरस्तोऽयं पक्षोऽथाऽधुना सर्वकर्मप्रवृत्तिहेतु निरूपणेन यथावस्थितात्मवस्तुविषय केवलज्ञानमात्रादेव सकल संसाराऽनथंनिवृत्तिरितीमं पक्षं द्रढयितुकाम आह
इस प्रकार 'कर्मसे ही मुक्ति सिद्ध है' इस पक्षका खण्डन हो चुका । अब आगे इसके अनन्तर सब प्रकार के कर्मोंमें प्रवृत्ति के कारणका विचार करते हुए 'नित्यसिद्ध आत्मवस्तुके ज्ञानसे ही सकल संसारके अनथकी निवृत्ति हो सकती है' इस पक्षको दृढ़ करनेके लिए कहते हैं ।