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भाषानुवादसहिता अज्ञानको निवृत्त किये बिना तो वह ज्ञान ही नहीं कहला सकता । और यदि उसको अज्ञानका नाशक मानिये तो जिसने अज्ञानसे उत्पन्न सम्पूर्ण कारकों का नाश कर दिया है वह ( ज्ञान ) फिर कर्मका स्पर्श ही कैसे कर सकता है ।। ६५ ॥
इदं चाऽपरं कारणं ज्ञानकर्मणोः समुच्चयनिवर्हि
हेतुस्वरूपकार्याणि प्रकाशतमसोरिव !
विरोधिनि ततो नाऽस्ति साङ्गत्यं ज्ञानकर्मणोः ।। ६६ ।।
ज्ञान और कर्मका समुच्चय न होनेमें यह एक और भी कारण है कि ज्ञानके कारण, स्वरूप और फल कर्मके कारण, स्वरूप और फलसे--अन्धकारके कारण
आदिसे प्रकाशके कारण आदिके समानः-सर्वथा परस्पर विरोधी होते हैं । इसलिए उनका-ज्ञान और कर्मका-सहभाव किसी प्रकार भी नहीं हो सकता ॥६६॥
एवमुपसंहृते केचित्स्वसम्प्रदायमलावष्टम्भादाहुः-यदेतद्वेदान्तवाक्यादब्रह्मेति विज्ञानं समुत्पद्यते, तन्नैव स्वोत्पत्तिमात्रेणाज्ञानं निरस्यति । किंतर्हि ? अहन्यहनि द्राधीयसा कालेनोपासीनस्य सतो भावनोपचयानिःशेषमज्ञानमपगच्छति, "देवो भूत्वा देवानप्येति" इति श्रुतेः। अपरे तु वक्ते-वेदान्तवाक्यजनितमहं ब्रह्मेति विज्ञानं संसर्गात्मकत्वादात्मवस्तुयाथात्म्यावगायव न भवति, किं तर्हि ? एतदेव गङ्गास्रोतोवत्सततमभ्यस्यतोऽन्यदेवाऽवाक्यार्थात्मकं विज्ञानान्तरमुत्पयते तदेवाऽशेषाऽज्ञानतिमिरोत्सारीति विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः' इति श्रुतेः । इत्यस्य पक्षद्वयस्य निवृत्तये इदमभिधीयते ।
"ज्ञान उत्पन्न होते ही कर्मका नाशक होता है, इसलिए कर्म के साथ उसका समुच्चय कदापि नहीं हो सकता' यह सिद्धान्त स्थिर हुआ।] इसपर कोई लोग अपने साम्प्रदायिक बलके सहारेसे यह कहते हैं कि "यह जो वेदान्त वाक्योंसे 'अहं ब्रह्म' (मैं ब्रह्म हूँ ) ऐसा ज्ञान होता है, वह उत्पन्न होते ही अविद्याकी निवृत्ति नहीं करता किन्तु दीर्घकालपर्यन्त प्रतिदिन उसका निदिध्यासन करनेसे उसके संस्कार दृढ़ होते हैं तब वह अज्ञानको नष्ट करता है। क्योकि "स्वयं देव बनकर देवोंको प्राप्त होता है” यह श्रुति शुद्ध भावनाओंकी वृद्धि होनेसे फिर देहपतनके बाद देवभावको प्राप्त होना प्रतिपादन करती है।'
और दूसरे लोग इसपर यह कहते हैं कि वेदान्त-वाक्यांसे उत्पन्न हुया 'अहं ब्रह्म' यह ज्ञान विशेषण और विशेष्यके सम्बन्धको विषय करनेवाला होनेके कारण (अर्थात् इसमें 'मैं' इस पदसे विशेष्यरूपसे जीवात्मा और 'ब्रह्म' इस पदसे विशेषणरूपसे