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नैष्कर्म्यसिद्धिः ब्रह्मके सम्बन्धका विषय करनेवाला ज्ञान होता है, इसलिए अात्मवस्तुके यथार्थ स्वरूपको वह विषय ही नहीं कर सकता। किन्तु इसी ज्ञानका निरन्तर गङ्गाप्रवाहके समान अभ्यास करते करते ऐसा एक ज्ञान ( जिसमें विशेषण, विशेष्य और उनका सम्बन्ध, इन तीनों पदार्थोंको भान नहीं होता ) उदय होता है । वही सम्पूर्ण अज्ञानान्धकारको दूर करता है । क्योंकि "विज्ञाय"-इस प्रथम शब्दसे विशिष्ट ज्ञानको प्राप्त कर पश्चात् -'प्रज्ञां कुर्वीत'-निर्विकल्प ज्ञानका सम्पादन करे, ऐसा यह श्रुति प्रतिपादन करती है।"
इन दोनों पक्षोंका खण्डन करनेके लिए अग्रिम प्रकरणका प्रारम्भ किया जाता है--
.. सकृत्प्रवृत्त्या मृद्नाति क्रियाकारकरूपभृत् ।
अज्ञानमागमज्ञानं साङ्गत्यं नाऽस्त्यतोऽनयोः ।। ६७ ॥ वेदान्तवाक्योंसे उत्पन्न हुअा ब्रह्मज्ञान उत्पन्न होते ही क्रिया, कारक आदि द्वैतके उत्पादक अज्ञानको नष्ट कर देता है। इस कारणसे इन दोनोंका सम्बन्ध कदापि नहीं हो सकता ॥ ६७ ॥
एवं तावदनानात्वे ब्रह्मणि ज्ञानकर्मणोः समुच्चयो निराकृतः । अथाऽधुना पक्षान्तराभ्युपगमेनाऽपि प्रत्यवस्थाने पूर्ववदनाश्वासो यथा अथाऽभिधीयते
इस प्रकार एक अद्वितीय अखण्ड ब्रह्मको मानकर ज्ञान और कर्मक समुच्चयका निराकरण किया। अब इसके अनन्तर यदि कोई जीवात्माका ब्रह्मा के साथ भेदाऽभेदवाद मानकर भी उसकी प्राप्ति के लिए ज्ञान-कर्मका समुच्चय सिद्ध करे तो भी पूर्ववत् ही दोष आते हैं, यह कहा जाता है
अनुत्सारितनानात्वं ब्रह्म यस्याऽपि वादिनः ।
तन्मतेनाऽपि दुःसाध्यो ज्ञानकर्मसमुच्चयः ॥ ६८ ॥ जिस वादीके मतमें जीवसे ब्रह्म पृथक् भी है और अभिन्न भी है, उसके भतमें भी उसकी प्राप्ति के लिए ज्ञान कर्मका समुच्चय होना कठिन है ॥ ६८ ॥
तस्य विभागोक्तिषणविभागप्रज्ञप्तयेभेदवादियोंके मतोंमें पृथक्-पृथक् दूषण दिखानेके लिए उनका मत कितने प्रकार का है, यह बतलाते हैं
ब्रह्मात्मा वा भवेत्तस्य यदि वाऽनात्मरूपकम् ।
आत्मानाप्तिभवेन्मोहादितरस्याऽप्यनात्मनः ॥६९॥ उन वादियोंके मतमें ब्रह्म आत्मरूप हैं, किवा आत्मभिन्न-अनात्मरूप है ?