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भाषानुवादसहिता जिस प्रकार एक होनेपर भी अनेक-सा प्रतीत होता है इसी प्रकार ---अनेकसा प्रतीत होता है ॥ ४७ ॥
यथोक्तार्थस्य प्रतिपत्तये दृष्टान्त:---- मित्रोदासीनशत्रुत्वं यथैकस्याऽन्यकल्पनात् । अभिन्नस्य चितेस्तद्वद् भेदोऽन्तःकरणाश्रयः ।। ४ ।। अपहारो' यथा भानोः सर्वतो जलपात्रकैः ।
तक्रियाकृतिदेशाप्तिस्तथा बुद्धिभिरात्मनः ॥ ४९ ।। पूर्वोक्त भावको स्पष्ट करनेके लिए दृष्टान्त दिया जाता है
जैसे एक ही मनुष्वमें दूसरोंकी कल्पनासे मित्र, शत्रु, उदासीन आदि भेद हो जाते हैं। वैसे ही एक यात्मामें अन्तःकरणोंके भिन्न होनेसे सुखी, दुःखी इत्यादि नाना भेद हो गए हैं ॥ ४६ ॥
और जैसे अनेक जलपात्र एक ही सूर्यको प्रतिबिम्ब रूपतया अनेक रूपसे ग्रहण करते हैं वैसे ही अनेक अन्तःकरण एक ही आत्माको अपने अपने ध्यानादि क्रिया, आकार, धर्म, आधारभूत हृदयादि देश, इत्यादि नानारूपोंसे ग्रहण करते हैं ॥ ४६ ॥
न च विरुद्धधर्माणामेकत्राऽनुपपत्तिः। किं कारणम् ?
कल्पितानामवस्तुत्वात्स्यादेकत्राऽपि सम्भवः ।
कमनीया शुचिः स्वाद्वीत्येकस्यामिव योषिति ॥ ५० ॥
और यह भी शङ्का नहीं करनी चाहिए कि एक ही आत्मामें सुख, दुःख, राग, द्वष इत्यादि विरुद्ध धर्म कैसे रह सकेंगे? क्योंकि कल्पित पदार्थ वास्तवमें होते नहीं। इसलिए वे परस्पर विरुद्ध होनेपर भी एक स्थानमें रह सकते हैं । जैसे कि एक ही स्त्रीके शरीरमें कामियों के लिए कमनीयत्व, संन्यासियोंके लिए अशुचित्व और कुत्तोंके लिए स्वादुत्व, ये परस्पर विरुद्ध धर्म रहते हैं ॥५०॥
न चाऽयं क्रियाकारकफलात्मक आभास ईषदपि परमार्थवस्तु स्पृशति, तस्य मोहमात्रोपादानत्वात् ।
अभूताभिनिवेशेन स्त्रात्मानं वञ्चयत्ययम् ।
असत्यपि द्वितीयेऽथ सोमशर्मपिता यथा ॥ ५१ ।। ५-अपहारः = प्रतिबिम्बरूपेण ग्रहणम् । २-यही पञ्चदशी में भी कहा है
भार्या स्नुपा ननान्देति याता मातत्यनेकधा । प्रतियोगिधिया योपिद भिद्यते न स्वरूपतः ॥