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________________ भाषानुवादसहिता शब्द अपने अर्थके साथ सम्बद्ध न हो तो वह किस प्रकार से अनभिधेय अर्थ का यथार्थ ज्ञान उत्पन्न करेगा ? ऐसी शङ्का यदि कोई करे तो उसका समाधान यह है कि जिस प्रकार शब्द प्रकृत में असम्बद्ध होनेपर भी अनभिधेय अर्थका बोधक होता है और विद्याकां निवारक भी होता है | यही बात कहते हैं- जैसे निद्रित पुरुष 'हे देवदत्त उठो, जागो !" ऐसे पुकारने पर, उस नामसे पुकार हुई है, इसलिए जाग जाता है। ऐसे हा तमस्वादि वेदान्तवाक्योंसे मी विद्यानिद्रा में निमग्न पुरुष शब्द के साथ किसी प्रकारका सम्बन्धज्ञान न होनेपर भी प्रबुद्ध हो जाता है ॥ १०५ ॥ [ यद्यपि निद्रावस्था में पुरुष को अपने नामका अपने साथ सम्बन्ध गृहीत नहीं है, तथापि पहले तो सम्बन्ध ज्ञान था, उतीसे उस समय भी बोध हो जाता है, ऐसी शङ्का यदि कोई करे, तो उसका उत्तर यह है --] ६३७ सोया हुआ न हि नाम्नास्ति सम्बन्धो व्युत्थितस्य शरीरतः । तथापि बुद्धयते तेन' यथैवं तत्त्वमित्यतः ॥ शरीर से अलग हुआ अर्थात् देह इन्द्रियादिके अभिमानसे रहित पुरुष मेरा यह नाम है और नामके साथ मेरा सम्बन्ध है, ऐसा नहीं जानता । क्योंकि उस काल में शब्दका श्रवण और सम्बन्धका स्मरण, दोनों नहीं हैं : यदि ये दोनों तथा शरीर-सम्बन्ध है, ऐसा मानो तब अन्योन्याश्रय दोष होगा । शरीर सम्बन्ध होनेसे . प्रतिबोध और प्रतिबोध होने से शरीरसम्बन्ध, अथवा प्रतिबोध होनेसे श्रवण, और श्रवण होनेसे प्रतिबोध । श्रतएव मानना पड़ेगा कि स्मरण हुए बिना ही नाम को में बोधन करानेकी शक्ति है । इसलिए वाचक शब्दको वाच्य श्रथमें ही सम्बन्धज्ञान की अपेक्षा है; लक्ष्त्रमें नहीं । क्योंकि गङ्गाराब्दका प्रवाह में सम्बन्ध - ज्ञान रहने पर भी तीरमें सम्बन्धज्ञान बिना ही बोधकत्व दीख पड़ता है । ऐसे ही अनात्ममिश्रित शबल में गृहीत- सम्बन्त्र तस्वमस्यादि वाक्योंको लक्षणा से अखण्ड ब्रह्मका बोब कराने में कोई बाधा नहीं है ॥ १०६ ॥ 1 १ – बुध्यते येन, ऐसा पाठ भी है । १८ १०६ ॥ यथा च arunsahar नमोsस्पृष्ट्वा कृष्णधीनीडगौ यथा । बाध्येतरात्मकौ स्यातां तथेहात्मनि गम्यताम् ॥ १०७ ॥ इस पर ऐसी शङ्का होती है कि 'अच्छा, शब्द से पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार आत्मज्ञान हो, तो भी आत्मा ज्ञान और अज्ञान दोनोंका श्राश्रय होनेसे विकारी बन जायगा ? इस शङ्काको दृष्टान्तके द्वारा दूर करते हैं जैसे आकाश अमूर्त होनेसे नीरूप है, इस प्रकारके यथार्थज्ञान और यह :
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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