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नैष्कर्म्यसिद्धिः
आत्माका प्रतिपादन होता है, साक्षात् नहीं । क्योंकि आत्माका साक्षात् श्रभिधा शक्तिके द्वारा प्रतिपादन नहीं हो सकता ॥ १०२ ॥
नाञ्जसाऽत्राभिधीयते इति को हेतुरिति चेत् ? षष्ठीगुणक्रियाजा तिरूढयः
शब्दहेतवः । नात्मन्यन्यतमोऽमीषां तेनाऽऽत्मा नाभिधीयते ॥ १०३ ॥
शङ्का - साक्षात् शब्द से आत्माका प्रतिपादन नहीं होता ( किन्तु लक्षण द्वारा होता है) इसमें क्या कारण है ?
समाधान - लोक में सर्वत्र शब्द किसी वस्तु में सम्बन्ध, गुण, क्रिया, जाति अथवा रूढि, इनमें से किसीके रहने से प्रवृत्त होता है । ग्रात्मामें इनमें से एक भी नहीं है, क्योंकि श्रात्मा श्रसङ्ग, निर्गुण, निष्क्रिय, जातिरहित और सम्बन्धसे शून्य है; इसी कारण किसी शब्दसे आत्मा साक्षात् नहीं कहा जा सकता है ॥ १०३ ॥
शब्दोऽभिधानाऽभिधेयत्वसम्बन्धाङ्गीकारेण नात्मनि
यदि वर्तते, कथं शब्दादहं ब्रह्मास्मीति सम्यग्बोधोत्पत्तिः ? उच्यते-सत्ये वर्त्मनि स्थित्वा निरुपायमुपेयते । आत्मत्वकारणाद् विद्मो' गुणवृत्त्या विबोधिताः ॥ १०४ ॥
इसपर यह शङ्का होती है कि यदि कोई भी शब्द वाच्य वाचकभाव सम्बन्धको अङ्गीकार करके आत्मामें प्रवृत्त नहीं होता, तब फिर 'अहं ब्रह्मास्मि' ऐसा ज्ञान वाक्यसे कैसे होगा ? इसका समाधान यह है कि
श्रारोपित मार्ग में स्थित होकर ( अर्थात् शबलात्मा के वाचक शब्दादि से ही ) निरुपाय अर्थात् साक्षात् उपायरहित श्रात्मतत्व प्राप्त किया जाता है । जैसे शाखाग्रसे 'चन्द्रमांका ज्ञान या रेखायो से सत्यवरणका ज्ञान होता है । और सभीका ग्रात्मा स्वप्रकाश है, इसलिए लक्षणावृत्तिसे ही उसका बोध हो जाता है ॥ १०४ ॥
सदनभिधेयेऽर्थे
कथं पुनरभिधानमभिधेयेनाऽनभिसम्बद्धं प्रमां जनयतीति । शृणु यथाऽनभिसम्बद्धमप्यनभिधेयेऽर्थेऽविद्यानिरा करणमुखेन बोधयतीत्याह
शयानाः प्रायशो लोके वोध्यमानाः स्वनामभिः |
सहसैव प्रबुद्धयन्ते यथैवं प्रत्यगात्मनि ॥ १०५ ॥ उपायमात्र उपेयके साथ सत्य सम्बन्ध रहित होनेपर भी बोधक हो सके, परन्तु
१ - कारण सिद्धा, ऐसा पाठ भी मिलता है |