________________
भाषानुवादसहिता
१३५
जैसे अविवेकी पुरुष निर्मल आकाशमें धूम, तुषार अथवा मेवमालिन्य श्रादिकी कल्पना करते हैं। वैसे ही मूढ़ लोग शुद्ध प्रत्यक् आत्मामें संसारकी कल्पना करते हैं ॥ ६६ ॥
'सर्वकल्पनानामप्यात्मन्यत्यन्ताऽसम्भवे समानेऽहंवृत्तौ कः पक्षपाते हेतुर्येन वृत्यन्तराणि विधूयाऽहंवृत्यैवात्मोपलक्ष्यत इति । उच्यते
चिनिभेयमहं वृत्तिः प्रतीचीवात्मनोऽन्यतः ।
२
पूर्वोक्तेभ्यश्च हेतुभ्यस्तस्मादात्माऽनयोच्यते ॥ १०० ॥ वृत्तिभिर्युष्मदर्थाभिलक्ष्यतेचेदृशिः
परः । अनात्मत्वं भवेत्तस्य वितथं च वचः श्रुतेः ॥ १०१ ॥
शङ्का - अहंवृत्तिके सभी पदार्थ घट, पट, शरीरादि - अधिष्ठान आत्मामें कल्पित हैं। इसमें कोई विशेष तो है नहीं । फिर वृत्त्यन्तरको छोड़कर केवल अहंवृत्तिआपका क्यों इतना श्राग्रह है, जो कि इसी वृत्तिसे लक्षणाद्वारा आत्माकी प्रतीति होती है, ऐसा कहते हो ?
समाधान - श्रहंवृत्ति चैतन्यप्रतिबिम्बको धारणकर बिलकुल चित्ररूप हो गई है, इसीलिए आत्मासे अन्य देहादिकी अपेक्षा यह ( अहंवृत्ति ) प्रत्यग्भूत ( श्रान्तर ) है अतएव पूर्वोक्त कारणोंसे भी इसीसे आत्माकी लक्षणा द्वारा प्रतीति होती है और घटादि वृत्ति द्वारा तथा घटादि शब्दोंसे आत्मा की प्रतीति लक्षणा से होगी,. ऐसा मानने पर घटादिके समान श्रात्माको अनात्मरूपसे प्रतीति होने लगेगी और ब्रह्मरूपसे प्रतीति नहीं होगी । तब 'अहं ब्रह्मास्मि' 'तत्त्वमसि' इत्यादि एकत्व - प्रतिपादक वाक्योंका वैयर्थ्य और अप्रामाण्य हो जाएगा ॥ १००,१०१ ॥
यथोक्तेन
अनेन गुणलेशेन ह्यत्यहं कर्तृकर्मया । लक्ष्यतेऽसाववृत्त्या नाञ्जसाऽत्राभिधीयते ॥ १०२ ॥
अतएव पूर्वोक्त - गुणलेशके सन्बन्धसे अहङ्कार, कर्ता ( प्रमाता ) उसके कर्म - देह, घटादिको प्रतिक्रम करके रहनेवाली जो कूटस्थ चैतन्यरून अहंवृत्ति है, उसीसे
१ - सर्वविकल्पकल्पनानां, पाठ भी मिलता है । २ --- श्रात्मा तयोच्यते, ऐसा पाठ भी मिलता है । ३- नाअसान्त्राभिधायकः, ऐसा पाठ भी मिलता है ।