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गर्तमें पड़ते हैं । इसीसे विवेकी पुरुषकी दृष्टिमें सांसारिक सुख भी परिणाममें नीरस होनेके कारण दुःखरूप ही है। इसीलिए योगसूत्रमें कहा गया है'परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच दुःखमेव सर्वविवेकिनः। (यो०सू०२-१५) ____ अविवेकी पुरुष अविद्यापरवश होकर दुःखके कारणभूत देहादिमें अहन्ता और ममता करता हुआ त्रिविध दुःखोंसे सन्तप्त होकर जन्म-मरणपरम्परारूप संसारमें भटकता रहता है। अतः संसार महान् दुःखरूप है।
और वास्तवमें यदि देखा जाय तो जीवको उस सच्चे सुख और सच्ची शान्तिकी ओर ले जानेमें कारण भी यह दुःख ही है । क्योंकि- इस संसार में यदि दुःख न होता और दुःखके रहनेपर भी यदि वह हेय न होता, अर्थात् यदि वह सुखके समान प्रिय होता, अथवा प्रिय न होनेपर भी यदि उसकी निवृत्ति नहीं हो सकती यानी दुःख यदि नित्य होता अथवा अनित्य होनेपर भी यदि उसकी निवृत्तिका कोई उपाय ही नहीं होता, या शास्त्रसे प्रतिपाद्य उपाय उसका निवर्तक न होता, अथवा शास्त्रप्रतिपाद्य उपायसे अन्य कोई सरल उपाय उसका निवर्तक होता, तो फिर कोई भी पुरुष सद्गुरुकी शरणमें जाकर वेदान्त वाक्योंका श्रवण ( अद्वैत ब्रह्ममें तात्पर्य-निर्णयरूप श्रवण ) नहीं करता, चित्तकी शुद्धिके लिए नित्यनैमित्तिक कर्मोंका अनुष्ठान एवं चित्तकी एकाग्रताके लिए भगवान्की उपासना भी नहीं करता । परन्तु ऐसी बात नहीं है। दुःख हैं और वे एक-दो ही नहीं, अनन्त हैं। वे सब तीन विभागोंमें विभक्त हैं—आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक । आध्यात्मिक दुःख शारीरिक और मानसिक भेदसे दो प्रकारके हैं । ज्वर, शूल, शिरोवेदना आदि रोग शारीरिक दुःख और काम, क्रोध, लोभ आदि मानसिक दुःख हैं। ये सब शरीरके भीतरी निमित्तोंसे उत्पन्न होनेके कारण आध्यात्मिक कहलाते हैं। सर्प, वृश्चिक, व्याघ्र, चौर आदि प्राणियोंके द्वारा उत्पन्न होनेवाले दुःख आधिभौतिक कहलाते हैं एवं अमि, जल, विजली आदिसे जो अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि दुःख उत्पन्न होते हैं, वे आधिदैविक कहे जाते हैं।
इन दुःखोंसे मुक्त होनेके लिए ही पुरुष वेदान्त शास्त्रका श्रवण,