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भाषानुवादसहिता समाधान-प्रत्यगात्माका अनवबोध (अज्ञान) जड़ स्वरूप, दृश्य एवं ज्ञानसे निवृत्त होने वाला है, इसलिए उसकी अनात्मरूपता स्वभाविक ही है। बुद्धिसे लेकर देहपर्यन्त पदार्थ उसी अज्ञानके कार्य हैं; अतएव उनका भी अनात्मत्व सिद्ध ही है। क्योंकि वे शुद्ध ब्रह्मके कार्य नहीं हैं । तथा प्रात्मा चिद्रूप, कूटस्थ, स्वयम्प्रकाशरूप होनेसे ब्रह्मरूप है। उसमें किसीकी अपेक्षा नहीं है । परन्तु जब देहादिसे आत्मबुद्धि निवृत्त हो, तभी वह स्वाभाविक भी ब्रह्मरूपता आविर्भूत होती है। ऐसा होनेपर भी यह शङ्का होती है कि अनात्म पदार्थों को स्वरूपसे स्थिति है इसलिए प्रात्यन्तिक अनर्थं निवृत्ति कैसे होगी? इस शङ्काको दूर करनेके लिए यह कहा जाता है कि-देहादिपदार्थोकी अत्मिरूपता जैसे अज्ञान निमित्तक है, वैसे उनका अनात्मपन भी अज्ञान निमित्तक ही है। इसलिए अविद्या नष्ट हो जाय तो फिर अनर्थकी सम्भावना नहीं है। क्योंकि-अविद्यासे रहित आत्मज्ञानवान् पुरुष अखण्ड ब्रह्मरूप होकर केवल एक ही अवशिष्ट रहता है । इसलिए यह कहा जाता है कि- .
देहादिरूप व्यवधान होनेके कारण स्वस्वरूप होनेपर भी तत्पदार्थ ब्रह्मको परोक्षरूपसेही जानता है, अर्थात् अपनेसे भिन्नरूपसे जानता है। जब देहादिको अनात्माका निश्चय अन्वय-व्यतिरेकसे हो जाता है तब तत्पदार्थ अपरोक्ष हो जाता है ॥ २६ ॥
यथोक्तार्थप्रतिपत्तिसौकर्याय दृष्टान्तोपादानम्प्रत्यगुद्भूतपित्तस्य यथा बाह्यार्थपीतता।
चैतन्यं प्रत्यगात्मीयं बहिर्वदृश्यते तथा ॥३०॥ पूर्वोक्तअर्थको सुगमताके साथ जाननेके लिए दृष्टान्तका उपादान करते हैं
जैसे पित्त अपने शरीरके भीतर ही एक देशमें अर्थात् चक्षुमें उत्पन्न होता है। परन्तु बाह्य शङ्खादि पदार्थों के साथ सम्बन्ध होनेसे शङ्खादिमें ही पीतिमाँ हैं, ऐसा मालूम पड़ता है। ऐसे ही प्रत्यगात्मा ब्रह्मरूप है, ब्रह्मसे भिन्न नहीं है। परन्तु अनात्मभूत अव्याकृतादि पदार्थों के साथ सम्बन्ध होनेसे वह ब्रह्म जीवको परोक्ष-जैसा प्रतीत होता है ॥ ३०॥
यस्मादेवमतो विशुद्धमवसीयताम्पदान्युद्धृत्य वाक्येभ्यो ह्यन्वयव्यतिरेकतः ।
पदाल्लोकतो बुद्ध्वा वेत्ति वाक्यार्थमञ्जसा ॥४१॥
तत्वमस्यादि वाक्यका अखण्डामें पर्यवसान होनेके कारण किसी प्रकारका विरोध नहीं है। अतएव निःशङ्क होकर पूर्वोक्त अर्थका निश्चय कर लेना चाहिए
१ विस्तब्धमवसीयताम् । ऐसा भी पाठ है। २ पदार्थ लोकतो, भी पाठ है ।