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नैष्कयंसिद्धिः द्वारा आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करना चाहते हैं, वे लोग तो नेत्र इन्द्रियके द्वारा रसज्ञानका अनुभव कर सकते हैं ? ॥ ११७ ॥
एवमप्रतिहतामहं ब्रह्मेति प्रमां तत्त्वमस्यादिवाक्यं कुर्वदपि न प्रतिपादयतीति चेदभिमतं न कुतश्चनापि प्रतिपत्तिः स्यादत आह
इदं चेदनृतं । . ब्रूयात्सत्यामवगतावपि । , 'न चाऽन्यत्रापि विश्वासो ह्यवगत्यविशेषतः॥११८॥
इस प्रकार तत्वमस्यादि वाक्यसे 'मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकारका प्रमात्मक अवाधित ज्ञान यदि हो रहा है, तब यह वाक्य एतादृश वस्तुका प्रतिपादन नहीं करता, ऐसा ही आपको अभीष्ट हो तब तो किसीसे भी ऐसी अवगति (ज्ञान ) नहीं होगी, इसलिए कहते हैं
'तत्वमसि' इत्यादि वाक्योंसे पूर्वोक्त निश्चितरूपसे ज्ञान होनेपर भी यदि कोई यह असत्य है, अप्रमाण है, ऐसा कहेगा,, उस पुरुषको ज्ञान होनेपर भी विशेषता न रहनेसे अन्यत्र भी, सम्पूर्ण वेदमें कहीं भी, विश्वास नहीं रहेगा ॥ ११८॥
न चोपादित्सिताद् वाक्यार्थाद् वाक्यार्थान्तरं कल्पयितुं युक्तम्। यस्मात्- '
न चेदनुभवोऽतः स्यात्पदार्थावगतावपि ।
कल्प्यं विध्यन्तरं तत्र न ह्यन्योऽर्थोऽवगम्यते ।। ११९ ॥
इसपर यदि कोई ऐसा कहे कि 'हम वेदान्तोंको अप्रमाण नहीं कहते, किन्तु वेदान्त उपासना विधिपरक हैं ऐसा कहते हैं। तो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है । क्योंकि
यदि तत् त्वं पदार्यके जाननेवालेको वाक्यश्रवणसे वाक्यार्थका ज्ञान न होता, तब विधिपरत्वकी कल्पना उचित थी, वह बात तो है नहीं। क्योंकि अधिकारी पुरुषको वाक्यसे ज्ञान होता हुआ अनुभवसे देख पड़ता है। और पूर्वोक्त रीतिसे मुख्य अर्थ संभव हो तो विधिकी कल्पना कर भी नहीं सकते। इसलिए विधिपरतया प्रामाण्य नहीं कह सकते । और 'तत्त्वमसि' इत्यादि वाक्य जिस प्रकरण में पठित हैं, उसमें कोई विधि श्रुत भी नहीं है ॥ ११६ ॥
न च यथाऽभिमतोऽर्थो यथोक्तेन न्यायेन नावसीयते । कोऽसौ न्याय इत्याह,
नामादिभ्यो निराकृत्य त्वमर्थ निष्परिग्रहः । नि:स्पृहो युष्मदर्थेभ्यः शमादि विधिचोदितः॥ १२० ॥ -न चान्यत्रापि वाक्ये स्थाद्विश्वासो अविशेषतः, ऐसा भी पाठ है।