________________
है.
MrvA
भावानुवादसहिता यस्माज्ज्ञानाऽभ्युपगमाऽनभ्युपगमेऽपि न ज्ञानान्मुक्तिः
ज्ञानको मुक्तिका साधन मानिये या न मानिये, दोनों ही पक्षों में केवल ज्ञानसे मुक्ति नहीं होती, यह सिद्ध हुअा।
अतः सर्वाश्रमाणां हि वाङ्मनाकाबकर्मभिः ।
म्बनुष्ठितैर्यथाशक्ति मुक्तिः स्यानाऽन्यसाधनात् ।। २१ ।। इसलिए सभी आश्रमवाले पुरुषोंको मन, वचन, और शरीर द्वारा यथाशक्ति भली-भाँति कोंके आचरणसे ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है, अन्य किसी साधनसे नहीं ।
[यहाँ तक ज्ञान और कर्म के समुच्चयको मोक्षका साधन माननेवालों की ओर से पूर्वपक्ष किया गया है । अब ]
असदर्थप्रलापोऽयमिति दूपणसम्भावनायाऽऽह
उपर्युक्त पूर्वपक्षमें दोष दिखलानेके लिए उसको 'वह व्यर्थ प्रलाप है, ऐसा कहते हैं
इति हृष्टधियां वाचः स्वप्रज्ञाध्मातचेतसाम् ।
घुष्यन्ते यज्ञशालासु धूमानवधियां किल ।। २२ ॥ 'कवल कर्मानुष्ठानसे ही हम लोगोंको स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति हो जाएगी' इस प्रकारकी अाशायो से जिनकी बुद्धि प्रफुल्लित हो रही है, जिनका अन्तःकरण युक्ति एवं शास्त्रसे विरुद्ध अपनी ही कपोलकल्पनाओं से परिपूरित है, और जिनकी दृष्टि धुंएसे विकृत हुई है, अर्थात् यथार्थ वस्तुको सम्यक नहीं ग्रहण कर सकती है, ऐसे कर्मवादी लोगोंकी पूर्वोक्त बातें प्रायः यज्ञशालाओं में सुनाई देती हैं ॥ २२ ॥ . दूषणोपक्रमावधिज्ञापनायाऽऽह
पूर्वोक्त कर्मवादियों के पूर्वपक्षमें कहाँतक और किस किस प्रकारसे दोष दिग्वलाए जाएँगे, यह कहते हैं
अत्राऽभिदध्महे दोषान्क्रमशो न्याय हितैः ।
वचोभिः पूर्वपक्षोक्तिघातिभिर्नाऽतिसम्भ्रमात् ॥२३॥ अब 'केवल कर्म ही मुक्तिका साधन है, इस पूर्वपक्षकी प्रक्रियाका निराकरण करनेमें समर्थ तथा युक्तिपूर्ण वचनो के द्वारा ( असत् उत्तरका स्पर्श न करते ) क्रमशः दोपांका निरूपण करते हैं ॥ २३ ॥
चतुर्विधस्याऽपि कर्मकार्यस्य मुक्तावसंभवान्न मुक्तः कर्मकार्यत्वम्
उत्पत्ति, प्राप्ति, विकार और संस्कार इन चार प्रकारके कर्म-फलोंमेंसे मुक्ति कोई भी फल नहीं हो सकती, क्योंकि स्वरूपस्थितिरूप मुक्ति नित्यसिद्ध होनेके कारण अात्मरूप है । अतएव मुक्ति कम-साध्य नहीं हो सकती। और--