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नैष्कर्म्यसिद्धिः "कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।"
इति मन्त्रोऽपि निःशेषं कर्माण्यायुरवासृजत् ।। १८ ॥ "कर्म करता हुअा ही साधक अपनी आयु व्यतीत करनेकी इच्छा करे" इस प्रकार अध्यात्म-प्रकरण में पठित यह वेदमन्त्र भी सम्पूर्ण प्रायुको कर्म करने में ही नियुक्त करता है ॥ १८ ॥
ज्ञानिनश्च वस्तुनि वाक्यप्रामाण्याभ्युपगमाद् वाक्यस्य च क्रियापदप्रधानत्वात्ततश्चाभिप्रतज्ञानाभाव:----
ज्ञानवादियोंके मतमें भी ब्रह्मरूप सिद्ध वन्तुमें वाक्य ही प्रमाण है और वाक्य क्रियापदके बिना लोकमें अर्थका बोधक नहीं दीव पड़ता। इसलिए वाक्यमें क्रियापदको ही प्रधान मानना चाहिए । यदि वह प्रधान है तो वह क्रियाका ही प्रतिपादक है । इस प्रकार वाक्यका सम्बन्ध क्रियामे न रखकर उससे केवल जो ब्रह्मज्ञान अभिप्रेत है, वह कैसे हो सकता है ? क्योंकि
विरहय्य क्रियां नैव संहन्यन्ते पदान्यपि ।
न समस्त्यपदं वाक्यं यत्स्याज्ज्ञानविधायकम् ॥ १९ ॥
श्रोताओं को तत्तत् वस्तुओंका पृथक २ अपने अपने स्वरूपसे ज्ञान दूसरे प्रमाणांसे ही सिद्ध है, इसलिए इस प्रकारके ज्ञानको उत्पन्न कराने के लिए पदोंका प्रयोग करना निरर्थक होगा । अतएव जो अज्ञात है, उसीको समझाने के लिए पदोंका परस्पर सम्बन्ध किया जाता है, ऐसा मानना पड़ेगा और सत्र कारकांका परस्पर सम्बन्ध क्रियाके बिना सिद्ध नहीं होता। इस कारण क्रियाका ही बोध कराने में सब शब्दोंकी सामर्थ्य है । अतएवा
क्रियापदके बिना अन्य पदांका भी परम्पर सम्बन्ध नहीं हो सकता और ऐसा कोई भी वाक्य नहीं है जो पदेांके बिना ज्ञानका विधायक हो। ( ज्ञानका विधान तो क्या, पदोंके मिले बिना वह अपने स्वरूपको ही नहीं प्रात हो सकता। ) ॥ १६ ॥
ज्ञानाऽभ्युपगमेऽपि न दोपः, यतःज्ञानको मोक्षका साधन मान भी लिया जाय, तो भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि
कर्मणोऽङ्गाङ्गिभावेन स्वप्रधानतयाऽथवा ।
सम्बन्धस्येह संसिद्धर्ज्ञाने सत्यप्यदोषतः ॥ २० ॥ ज्ञानको चाहे कर्मका अङ्ग मानो अथवा स्वतन्त्र मानो, दोनों ही प्रकारसे ज्ञान और कर्म मिलकर मोक्षके साधन हैं, केवल ज्ञान नहीं । इस प्रकार ज्ञानका कर्मके साथ अङ्गाजीभाव या समुच्चयरूप सम्बन्ध सिद्ध ही है ।